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________________ ने द्वादसार नयचक्र के प्रत्येक अर के अन्त में आर्ष लिखकर प्रमाण दिया है वैसे ही उपाध्याय ने भी शास्त्रों के प्रमाण दिये हैं। उन्होंने किसी भी स्थान पर स्वतंत्र कल्पना नहीं की है। सिद्धसेन दिवाकर, मल्लवादिजी महाराज तथा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के भिन्न-भिन्न वक्तव्यों का समन्वय करके अपने पूज्यों के प्रति आदर व्यक्त किया है। स्याद्वाद के बारे में तार्किक शिरोमणि श्री सिद्धसेन दिवाकर रचित 'द्वात्रिंशक द्वात्रिंशिका' ग्रंथ की 'चतुर्थ द्वात्रिंशिका' के 15वें श्लोक में दिखाया है कि-सभी नदियाँ जैसे महासागर में मिलती हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न नदियों में महासागर नहीं दिखता। वैसे ही सर्वदर्शन रूपी नदियाँ आपके स्याद्वादरूपी महासागर में सम्मिलित होती हैं किन्तु एकान्तवाद से महासागर दृष्टिगोचर नहीं होता है। यह ही आपकी विशिष्टता है। 1444 ग्रंथ के प्रणेता, याकिनीमहत्तरा धर्मसून आचार्यप्रवर श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वर कहते हैं कि पक्षपातो न मे वीरो द्वेषो न कपिलादिषु, युक्तिमद् वचन यस्य तस्य कार्य परग्रह। स्याद्वाद के प्रति अपनी मति को निश्चल रखने के लिए उपाध्यायजी स्वरचित 'अनेकान्तव्यवस्था प्रकरण'65 की प्रशस्ति में 13वें श्लोक में दिखाते हैं कि यह ग्रंथ की रचना करके विषयरूप विष से कलुसित इस संसार के वैभव आदि किसी भी फल की मुझे इच्छा नहीं है। मैं तो सिर्फ अनेकान्त में आभव एवं परभव में मेरी मति निश्चल एवं अडोल रहे, इतना ही चाहता हूँ। दूसरा यह भी सभी लोग ऐसे ही याचना करें, यह मेरी इच्छा है। जिनेन्द्र भाषित स्याद्वाद के बारे में जितना लिखें, उतना कम है। स्याद्वाद में महान् ज्योतिधर उपाध्यायजी के प्राचीन, अर्वाचीन सभी ग्रंथों का दोहन करके, उसमें लिखे हुए लेख में उनकी समस्त विश्व से सब प्रकार की सर्वोत्कृष्टता, व्यापकता एवं समन्वयता सिद्ध करने का प्रबल प्रयत्न किया है। उन्होंने प्रमाण के साथ-साथ अन्य दार्शनिकों के प्रमाण देकर भी स्याद्वाद की सार्थकता सिद्ध की है कि वास्तव में उपाध्याय स्याद्वाद के महान् ज्योतिर्धर थे, हैं और रहेंगे। विद्या के कर्मठ व्यक्तित्व विश्व वाङ्मय में यशोविजय एक अद्भुत व्यक्तित्व एवं वैदुष्य से अपने अस्तित्व की विद्यमानता को प्रतिष्ठित करने में पुरोगामी रहे। अपने काल में जितने प्रतिष्ठित ग्रन्थ थे, उनका अध्ययन करने का मानो उन्हें जन्मजात अधिकार मिला था। उस पठन-पाठन की पटुता से अद्भुत लेखक बनने की योग्यता प्रकट हुई। जिनमागमों का समुचित समालेखन करने का सुप्रयास किया। जीवन की प्रत्येक पल श्रुतोपासना की श्रृंखला बनकर युग-युगान्तों तक अविच्युत बनी, स्व-कल्याण एवं पर-कल्याण की साधना बनी। अज्ञान, अंधकार, वासना, ममत्व आदि प्रपंच से च्युत होकर ज्ञानप्रकाश सद् अनुष्ठानों की आधार बनी। अध्ययन और आलेखन उनके जीवन के दो पहलू थे। सम्पूर्ण वाङ्मय का अध्ययन करने के पश्चात् उनकी आलेखन क्रिया प्रारम्भ हुई। उनको जिनवचन से यह पूर्णज्ञान हो गया था कि जीवन में ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। ऐसे उत्कृष्ट ज्ञान की महिमा को बताते हुए उपाध्यायजी ने स्वयं के ज्ञानसार में कहा है कि निर्वाण पदमप्येकं भाव्यते यन्मुहुर्मुह, तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं निर्बन्धो नास्ति भूयसा। 22 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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