________________ एकस्येव हि इस्व-दीर्घादिविधयोऽनेककारक संनिपातः, सामानाधिकरणयम्, विशेषण विशेष्य भावादयश्च स्याद्वादमन्तरेण नोपपद्यन्ते। अर्थात् एक ही इस्व, दीर्घ आदि कार्यों में अनेक कारक या संबंध समानाधिकरण्य एवं विशेषण-विशेष्यभाव आदि होता है। वे स्याद्वाद के बिना शक्य नहीं हैं। अर्थात् स्याद्वाद के स्वीकार से ही ऐसा हो सकता है। श्री हेमचन्द्रसूरीश्वर यही सूत्र की वृत्ति में स्वरचित 'अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका' के 30वें श्लोक में प्रमाण देते हुए कहते हैं अन्योऽन्य पक्षप्रतिपक्षभावाद्, यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः। नयानशेषान विशेषमिच्छान्, न पक्षपाती समयस्तथा ते।।। जैसे परस्पर विरुद्ध मान्यता को लेकर एकान्त दर्शनवादी परस्पर द्वेषित होते हैं। परमात्मा आपका आगम सिद्धान्त ऐसा नहीं है, क्योंकि एकान्तवाद से दूर है। इतना ही नहीं पर सकल नयवाद का इच्छित है। हेमचन्द्रसूरि महाराज ने 'अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका' के 28वें श्लोक में तो यहां तक लिखा है कि विश्व में सभी वादी के समक्ष हमारी यह उद्घोषणा है कि वीतराग के अलावा अन्य कोई श्रेष्ठ देव नहीं हैं एवं अनेकान्त के अलावा अन्य कोई नयस्थिति नहीं है। ऐसे ही न्यायाचार्य न्यायविशारद महामहोपाध्याय यशोविजय महाराज न्यायखण्डखाद्य के 52वें श्लोक की व्याख्या में लिखते हैं "न हयेकत्र नानाविरुद्ध धर्मप्रतिपादकः स्याद्वादः किन्तु अपेक्षाभेदेन तदविरोध द्योतकस्यात्पद . समभिव्याकृतवाक्य विशेष स इति" - एक ही वस्तु में विविध विरुद्ध वस्तु का प्रतिपादन करना स्याद्वाद नहीं है किन्तु अपेक्षाभेद से उनका अविरोध दिखाने वाला स्यात् पद से समतकृत वाक्यविशेषरूप स्याद्वाद है। षड्दर्शन की साक्षात् मूर्ति - उपाध्यायजी जब बौद्धों का खण्डन करते हैं एवं पूर्वपक्ष ऐसे प्रतिपादित करते हैं तब स्वयं वसुबंधु, दिङ्नाग एवं धर्मकीर्ति की याद दिलाता है। मीमांसकों की जब मीमांसा करते हैं तब भट्ट एवं प्रभाकर की याद दिलाता है। वेदान्त को जब वे हाथ में लेते हैं तब वेदान्तिकाचार्य लगते हैं। जब वे योगरहस्य समझाते हैं तब योगाचार्य लगते हैं, सही में वे षड्दर्शन की साक्षात् मूर्ति हैं। धन्य है सर्ववाद परमेश्वर के असाधारण पुजारी को। उनका शास्त्रबोध बहुत ही गहन एवं गहरा था। वे केवल सूत्र के शब्दार्थ पर ही नहीं बल्कि उनका बोध उपयुक्त होता है। पूज्यश्री ने स्थान-स्थान पर जहाँ सूत्रावबोध की बात कही है, वहाँ चार प्रकार के अर्थ की बात भी की है। उन्होंने चार प्रकार के अर्थ की जो विशद् विवेचना की है ऐसा कोई अन्य आचार्य ने किया हो, ऐसा लगता नहीं है। वे जो चार प्रकार के अर्थ की बात करते हैं, उसमें पदार्थ, वाक्यार्थ, महावाक्यार्थ एवं एदम्पर्यार्थ की है। उसमें भी स्वमति कल्पना का दोष न लगे, इसलिए उन्होंने जैसे वादिभूषण मल्लवादि सूरिजी 21 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org