________________ ऐसा कहकर उनके हृदय में परमात्मा के प्रति जो भक्ति थी, वह व्यक्त की। इतना ही नहीं, उनके साथ-साथ परमात्मा की आज्ञा भी उनकी नस-नस में व्याप्त है, ऐसा इकरार भी किया। उनकी प्रायः सभी रचना से पता चलता है कि उनके दिल में जिनाज्ञा के प्रति कितना अनहद प्रेम एवं रस है। उनके दिल में एक ही भावना थी कि परमात्मा के सिद्धान्तों की स्याद्वाद का सहारा लेकर सही साबित करके उनका निष्कर्ष जनता के समक्ष रखना। सर्वशास्त्र पारंगत उपाध्यायजी काशी में किये हुए अभ्यास के कारण ही उपाध्यायजी नव्यन्याय की शैली में स्याद्वाद के सिद्धान्तों का विवेचन कर पाये। उनमें ग्रंथरचना करने की शक्ति तो थी, तभी वे स्याद्वाद के सिद्धान्त को नव्यन्याय की शैली में दर्शा सके। आज भी वे स्याद्वाद रूपी रस से नीतरते चरण-करण की भावना से भरपूर, अकाट्य युक्तिरूप तरंगों से युक्त उनकी ग्रंथरचना सभी पण्डितों को नतमस्तक कराती है एवं अखण्ड चारित्रवान के लिए सिर झुकाती है। उनके किसी भी ग्रंथ को कहीं से भी देखें तो उनमें न्याय की छाया तो दिखने को मिलती ही है। यह उनकी विशेषता है। वे केवल न्यायशास्त्रों में ही पारंगत नहीं थे, बल्कि सर्वशास्त्रों में निपुण थे। जब उनकी ग्रंथरचना का अध्ययन करते हैं तो वे एक समर्थ ग्रंथकार थे, ऐसा प्रतीत होता है। जब उनकी संस्कृत काव्यरचना को देखते हैं तो एक कविसम्राट् की छवि नजर आती है। जब उनमें स्याद्वाद की विवेचना को देखते हैं तो वे पुरस्कर्ता के रूप में सामने आते हैं। जब वे सिद्धान्त की बातें लिखते हैं तब एक आगमिक आचार्य की भांति प्रतीत होते हैं। जब कर्मविषयक विवेचना को देखते हैं तो कर्म-साहित्य के प्रखर ज्ञाता के रूप में सामने आते हैं। व्याकरणविषयक तिऽन्वयोक्ति जैसे ग्रंथ देखते हैं तब वे प्रखर व्याकरणकार दिखते हैं। अतीत काल के सभी महान् आचार्यों के गुणों को उन्होंने अपने में समाविष्ट कर लिया हो, ऐसा उनके ग्रन्थावलोकन से पता चलता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि सिद्धसेन दिवाकर, मल्लवादि सूरीश्वर, हरिभद्रसूरि, वादिदेवसूरि एवं हेमचन्द्र के एक-एक गुण लेकर उन सब गुणों का समन्वय करके ही यशोविजय महाराज के बुद्धि देह की रचना हुई हो, ऐसा लगता है। उपाध्याय महाराज ने स्याद्वाद की सार्थकता बताते हुए निम्न श्लोक में मार्मिक उपमा देकर दिखाया है यस्य सर्वत्र समता नयेषु नयेष्विव, तस्यानेकान्तवादस्य कव् न्यूनाधिक शेमुषी।" अर्थात् जैसे माता को अपने सब बच्चों के प्रति समान प्यार होता है, ठीक वैसे ही जिन अनेकान्तवाद को सब नयों के प्रति समान दृष्टि होती है, उस स्याद्वाद को एक नय में हीनता की बुद्धि और अन्य नय के प्रति उच्चता की बुद्धि कैसे होगी अर्थात् किसी भी नय के प्रति हीनता या उच्चता की बुद्धि स्याद्वाद में नहीं होती है। स्याद्वाद सिद्धि के कई प्राचीन प्रमाण भी उपलब्ध हैं, जो निम्न हैं कलिकाल सर्वज्ञ भगवान श्रीमद् हेमचन्द्र सूरीश्वर महाराज रचित 'सिद्धहेम' व्याकरण ग्रंथ में 'सिद्धिः स्याद्वादात्' (1.1.2) इस सूत्र की वृत्ति में दिखाया है। 20 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org