SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अद्वैतवाद, दृष्टिसृष्टिवाद, अजातवाद, अक्रियवाद, क्षणिकवाद, विवर्तवाद, आरंभवाद, स्फोटवाद, शुष्कवाद, वेदवाद, नयवाद, तर्कवाद, सर्वोदयवाद, विकासवाद एवं विज्ञानवाद आदि। इन सबसे न्यारा एवं सभी वादों पर अपना अस्तित्व, प्रभुत्व जमाने वाला सर्वज्ञ श्री जिनेश्वर परमात्मा द्वारा बताया हुआ एकमात्र स्याद्वाद अनेकान्तवाद ही विश्व में सदा जयवंत है। स्याद्वाद जैनदर्शन का मौलिक सिद्धान्त है, सभी दर्शनों का आधार है। 'स्याद्वाददर्शन' व 'अनेकान्तदर्शन' के नाम से विश्व में उनकी प्रसिद्धि है। तरण-तारण तीर्थंकर परमात्मा एवं श्रुतकेवली गणधर भगवंतो आदि के वचन से बहता हुआ गंगाप्रवाह है। विश्व को यथार्थ स्वरूप में निहारने के लिए दिव्यचक्षु है। जगत् की सभी वस्तुओं को अपेक्षाभेद से संकलित करने वाला अलौकिक शास्त्र है। एकान्तवादी को जीतने का अमोघ शास्त्र है। नयरूप मदोन्मत हाथी को वश में करने वाला अनुपम अंकुश है। सरस्वती को वश में करने के लिए मनोहर महल है। अज्ञानतिमिर को सर्वथा दूर करने वाला ज्ञानरूप सूर्य है। सद्ज्ञानियों के हृदयरूपी रलाकर की पूर्णचन्द्र है। विश्व की अदालत में सही न्याय देने वाला निरूपम न्यायाधीश है। कर्णप्रिय मनमोहक सुन्दर संगीत है। समस्त विश्व का महान् कीर्तिस्तम्भ है एवं विश्वशांति अपनाने की अद्वितीय सत्ता है। स्याद्वाद नित्यानित्य, भिन्नाभिन्न, भेदाभेद आदि अनेक वस्तु का संग्रहस्थान है। संरक्षक अभेद्य किला है। अहिंसा, संयम एवं तपरूपी सद्धर्म का सर्वोत्कृष्ट विजयी ध्वज है। सभी गुणों का अटूट भण्डार है एवं मुक्ति मन्दिर की मनोहर सोपान पंक्ति है। इस तरह समस्त विश्व में सार्वभौम सतावंत स्याद्वाद-अनेकान्तवाद एक महान् चक्रवर्ती है। 'स्याद् इति वादः' / 'स्याद्वाद' यानी स्याद् पूर्वक जो वाद अर्थात् अनेकान्तवाद ऐसा अर्थ होता है। स्याद्वाद का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि नित्यानित्याधनेकधर्माणामेकवस्तुनि स्वीकारः स्याद्वादः। अर्थात् नित्यत्व एवं अनित्यत्व आदि अनेक धर्मों का ही वस्तु में स्वीकार करना स्याद्वाद है। कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि ने सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन (वृहदवृत्ति) में स्याद्वाद के संबंध में द्वितीय सूत्र की रचना कर उनका व्युत्पत्यार्थ बताने के वाद स्याद्वाद का फलितार्थ निम्न दिया है 'स्याद्वाद-नित्यानित्याधनेक धर्मशपलैक वस्तुभ्युपगम इति / नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्म से मिश्रित एवं वस्तु का स्वीकार करना, उसे स्याद्वाद कहते हैं। यह स्याद्वाद अनेकान्तवाद का लक्षण है। स्याद्वाद से मण्डित न्यायविशारद, न्यायाचार्य यशोविजय महाराज जैनशासन की एक अमूल्य विभूति थे। वे अहमनिष्ठ, अडिग, महायोगी थे। वे पंचमहाव्रत पालन में तत्पर रहते थे। वे केवल एकान्त दृष्टि वाले नहीं थे। अनेकान्तदृष्टि उनका प्राण था। उनमें जितना ज्ञान का पक्षपात था, उतना ही क्रिया का था। केवल इतर विद्वानों की तरह केवलज्ञान के उपासक नहीं थे, किन्तु उभय को समान न्याय देने वाले थे। परमात्मा की आज्ञा के पालक थे। जिनाज्ञा का पालन करने के लिए वे कभी डरते नहीं थे। यही बात उपाध्याय ने शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति करते हुए कही है मिथ्या मत है बहुजन जग में, पर न धरत धरणी, उनका हम तुज भक्ति प्रभावे, भय नहीं एक कणी। 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy