________________ अम्हारिसा वि मुकखा पंतीए पडियाण पविसंति, अण्णं गुरु भतीए किं विलसियमब्भुयं इतो?" वे अपने विचारों में अडिग एवं निर्भय थे। वे स्पष्टवादी थे। सत्य का साक्षात्कार करना उनका लक्ष्य था। सत्य का समर्थन वे अडिग एवं निर्भय होकर करते थे। न्यायलोक के अंत में उन्होंने कहा है अस्मादशां प्रमादग्रस्ताना चरणकरण हीनानाम्, अब्धौं पौत इव प्रवचनरागः शुभोपायः।। यह लिखकर उन्होंने अपनी वास्तविक अपूर्णता को व्यक्त किया है। कभी उनको ग्रंथ रचना के . विषय में विषम वातावरण का अनुभव होता तो उनके हृदय में से शब्द निकलते __ अनुग्रहत एव नः कृतिरिये सतां शोभते, खलप्रल पितैस्तु नो कमपि दोषमीक्षामहे एवं। ग्रंथेभ्यः सुकरो ग्रन्थो मूढा इत्यावजानते / / इत्यादि कटु एवं हृदय का उकलाट बढ़ाने वाली पंक्तियां निकल पड़ती। प्रतिमाशतक की टीका में लिखा है _ 'एतेन लुम्पाकानां मुखे भमीकुर्चकी दतः'। इस तरह साम्प्रदायिक कठोरता को भी उन्होंने दर्शाया है। दार्शनिक पदार्थ का विवेचन करते वक्त दार्शनिकता की अहंता भी देखने को मिलती है। सीमंधरजिन विनंती रूप स्तवन आदि में साधुजीवन और गृहस्थजीवन की सदोषता को देखकर उन पर कटाक्ष देते हुए भी नजर आते हैं। ज्ञानसार, अध्यात्मसार, द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका एवं सुजसवेली भाष के आध्यात्मिक पदों में उन्होंने मध्यस्थ भाव, असम्प्रदायिकता एवं समरस भाव को प्रकट किया है। द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशक में 'महर्षि भिरुक्तम्' ऐसा लिखकर दिगम्बराचार्य कृत ग्रंथ की साक्षी दी है और उन्होंने लिखा है कि न च एतमायाकर्तु दिगम्बरचेन महर्षि वाभिधानं न निखधम्। इति मूढधिया शंकनीयम्, सत्यार्थकथन गुणेन व्यासादीनामपि।। हरिभद्राचार्यैस्तधा भिधानादिति इस गाथा के कर्ता आचार्य दिगम्बर होने से महर्षि लिखने योग्य नहीं हैं। ऐसी किसी की . शंका हो तो उनके उत्तर में उपाध्याय बता रहे हैं कि इसमें शंका करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तात्विक वस्तु को कहने में उनके गुण को ध्यान में लेकर श्री हरिभद्राचार्य ने व्यास आदि को भी महर्षि कहा है। स्याद्वाद के महान् ज्योतिर्धर विश्व में अनेक प्रकार के वाद देखने को मिलते हैं, जैसे-राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, समाजवाद, साम्यवाद, शाहीवाद, संस्थानवाद, संदिग्धवाद, संशयवाद, शून्यवाद, असंभवितवाद, निरपेक्षवाद, एकांतवाद, वितंडावाद, विखवाद, जातिवाद, कोमवाद, पक्षवाद, प्रतिवाद, भाषावाद, अज्ञेयवाद, अज्ञानवाद, द्वैतवाद, 18 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org