________________ * थे। वैराग्य एवं त्याग में तत्पर आत्मा के गुणों को प्रगट करने वाले थे। ऐसे अनेक गुणों से युक्त उपाध याय के गुणों का वर्णन आनन्दघन की रची हुई अष्टपदी में किया गया है। यशोविजय के प्रभावकारी व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यह अष्टपदी के गुणों का वर्णन हमारे सामने एक प्रमाणित जानकारी उपस्थित करती है, क्योंकि यह उनके समसामयिक एक सन्त पुरुष द्वारा प्रस्तुत की गई है। दूसरे, यह उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत करती है। इसलिए भी इसका महत्त्व है। समदर्शिता समदर्शिता यशोविजय के व्यक्तित्व की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। वे समता के सच्चे साधक थे। समता की यह साधना उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी। 'साधो भाई समता संग रमीजे' यह उनका जीवन-सूत्र था। वे मान-अपमान, निन्दा-स्तुति से भी अप्रभावित थे। उनके काव्य में अपने आलोचकों के प्रति आक्रोश का एक भी शब्द नहीं मिलता। जैन परम्परा के अनेक रूढ़िवादी उनके आलोचक थे, फिर भी वे उनके प्रति समभाव ही रखते थे। यशोविजय स्वयं ने अपनी अष्टपदी में इसका संकेत किया है , कोऊ आनन्दघन छिद्र ही पेखत, जसराय संग चठि आया। आनन्दघन आनन्दरस झीलत देखत हो जस गुण गाया।।" वे आत्मभाव में रमण करने वाले श्रेष्ठ ऋषि थे। आनन्दघन ने एक स्थान पर लिखा है मान अपमान चितसम गिणै, समगिणै कनक रे पाखाणरे, बंदक, निदूंक हूँ सम गिणे इष्यो होय तू जानरे। उपाध्याय यशोविजय अपनी साधक आत्मा से कहते हैं कि साधक! तेरा कोई आदर सत्कार करे तो क्या, और निरादर-तिरस्कार करे तो क्या? तेरा आत्म-धर्म तो समता है। तुझे दोनों स्थितियों में समत्व रखना है। इससे तेरे आत्मगुण में वृद्धि और निन्दा या प्रशंसा करने पर तू खिन्न या तुष्ट न हो, क्योंकि साधक का यह आवश्यक गुण है कि वह दोनों अवस्थाओं में सन्तुलित रहे। चित विक्षोभ और विकलता ही हमें आध्यात्मिक आनन्द से वंचित रखती है। जिसे आत्मानंद की अनुभूति करना हो, उसे चित्त को निर्विकल्प बनाना होगा और तदर्थ समभाव की साधना करनी होगी। ____ आनन्दघन इसी समभाव का मार्मिक विश्लेषण करते हुए कहते हैं सर्व जग जंतु ने सम गिणै, गिणे तुण मणि भाव रे, मुगति संसार बुधि सम घरै, मुणे भव जल निधि नाव रे।" साधक शत्रु-मित्र ही नहीं, अपितु प्राणीमात्र के प्रति आत्मतुल्य दृष्टि रखे। तृण और बहुमूल्य रत्न दोनों को पुद्गल ही समझे। प्रतीत होता है कि यशोविजय की समदर्शिता पराकाष्ठा पर पहुंच गई थी। उन्हें अध्यात्म की वो अनुभूति हो गई थी, जिसमें मुक्ति की आकांक्षा भी मिट जाती है। उसके लिए मुक्ति और संसार दोनों समभाव में समा गए थे। उपाध्याय की अनेकरूपता उपाध्याय का जीवन देखते हैं तो अनेकरूपता दृष्टिगोचर होती है, वे गुरुभक्त थे। उन्होंने गुरुतत्वविनिश्चय ग्रंथ के प्रारम्भ में बताया है 17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org