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________________ के साथ शिष्टाचार का पालन किया है। गुरुतत्वविनिश्चय ग्रंथ के प्रथम श्लोक में उनकी नम्रता नमित बन रही है पणमिय पासजिणिदं संखेसरसंठियं महाभागं। अतठीण हिअट्ठा, गुरुततविणिच्छयं वृच्छं।। शंखेश्वर गाँव में विराजमान पार्श्वनाथ प्रभु को नमस्कार करके आत्मार्थी जीवों के लिए गुरुतत्वविनिश्चय ग्रंथ के उपदेश को कहूंगा। अध्यात्म के आलोक यशोविजय 'यथानाम तथा गुण' की उक्ति चरितार्थ करते हैं। वे आध्यात्मिक जगत् के जगमगाते प्रकाशपूंज हैं, यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। उन्होंने आत्मिक आनन्द का जो झरना बहाया है, वह जन-जन की आध्यात्मिक तृषा शान्त कर देता है। उनकी सन्तप्रकृति, कवित्वशक्ति, विद्वत्ता एवं परम आनन्द की मस्ती से सम-सामयिक एवं परवर्ती सन्त और विद्वान प्रभावित हैं। उनकी आध्यात्मिकता से उनके समकालीन आनन्दघन जैसे महान् प्रतिभासम्पन्न विद्वान् असाधारण रूप से प्रभावित थे। जब यशोविजय एवं आनन्दघन का मिलन हुआ था तब यशोविजय उन अध्यात्मयोगी को मिलकर इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने अपने हृदयोद्गार व्यक्त करने के लिए आनन्दघन की प्रशस्ति में एक अष्टपदी की रचना की थी, जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं आनंद ठोर ठोर नहि पाया, आनंद आनंद में समाया, रति अरति दोउ संग लीय वरजित अरथने हाथ तपाया। कोऊ आनन्दघन छिद्र ही पेखत, जसराय संग चड्ढी आया, आनन्दघन आनन्दरस झीलत देखत ही जस गुण गाया।। आनन्द की गत आनन्दघन जाणे वाई सुख सहज अचल अलख पद, व सुख सुजस बखाने, सुजस विलास अब प्रकटे आनन्द रस, आनन्द अक्षर खजाने। .. ऐसी दशा जब प्रकटे चित अंतर, सो ही आनन्दघन पिछाने / / उक्त उद्धरणों से यह झलक मिलती है कि उपाध्याय यशोविजय आनन्दघन से कितने अधिक प्रभावित थे। इस अष्टपदी के जवाब में आनन्दघन भी यशोविजय से प्रभावित होकर उन्होंने भी एक अष्टपदी की रचना की थी, जो आज उपलब्ध नहीं है। आनन्दघन पद संग्रह भावार्थ में श्रीमद् बुद्धिसागर लिख रहे हैं कि श्रीमद् आनन्दघन ने उपाध्याय यशोविजय के गुणों का वर्णन करने के लिए अपने हृदयोद्गार के साथ अष्टपदी की रचना की है। बीजापुर के अध्यात्म प्रेमी शा. सुरचंद स्वरूपचंद ने कहा कि मैंने सूरत में सन 1954 में आनन्दघन द्वारा लिखित अष्टपदी देखी और वाचन किया। इसमें उपाध्याय के गुणों का वर्णन है। उपाध्याय गीतार्थ एवं आगमों के आधार पर सत्य के उपदेशक थे। उनमें बहुत लघुता थी। गुणानुराग के रंग से रंजित थे। जैनशासन के रक्षक, प्रवर्तक एवं पूर्वप्रेमी थे। जैनशासन की उदय करने वाले, आत्मभोग देने वाले 16 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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