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________________ इस प्रकार यशोविजय ने वाद में विजय प्राप्त करके काशी नगर का, काशी के पण्डितों का और विद्यागुरु भट्टाचार्य का मान बचा लिया। इससे काशी के हिन्दू पण्डितों ने मिलकर यशोविजय की विजय के उपलक्ष में नगर में उनकी शोभायात्रा निकाली। इस प्रसंग पर सभी हिन्दू पण्डितों ने मिलकर उल्लासपूर्वक यशोविजय को 'न्याय विशारद' और 'तार्किक शिरोमणि' ऐसे विरुद दिए। इसका उल्लेख यशोविजय ने स्वयं प्रतिमाशतक तथा न्यायखंडखाद्य में किया है। शारद देवी का वरदान गंगा नदी के किनारे वि.सं. 1739 में रचित 'जंबुस्वामी रास की आद्य पंक्ति' बताते हुए स्वयं यशोविजय कहते हैं कि मैंने गंगा नदी के किनारे ऐंकार का जाप किया था। उसके फलस्वरूप शारदादेवी प्रसन्न हुई, उनके तर्क एवं काव्य के अनुरूप वरदान दिया और उनकी भाषा तब से कल्पवृक्ष की शाखा समान हो गयी है। यशोविजय ने ऐंकार का जाप किया एवं इस उपयुक्त हकीकत का समर्थन करता उल्लेख 'महावीर स्तुति'।। श्लोक में भी देखने को मिलता है। - सरस्वती की उपासना से उनकी वाणी प्रभावी हो गयी, यह बात यशोविजय खुद 'अज्जतमयपरिक्खा'! की स्वोपज्ञ वृत्ति की प्रशस्ति श्लोक-13 में भी दिखाते हैं। यहाँ हम कह सकते हैं कि काशी में गंगा नदी के किनारे ऐंकार के जाप द्वारा उन्होंने सरस्वती देवी की उपासना करके तर्क एवं काव्यशास्त्र का वरदान प्राप्त किया था। आगरा में 4 वर्ष का अभ्यास एवं 700 रु. की भेंट . काशी में अभ्यास पूरा करके यशोविजय गुरु महाराज के साथ आगरा आए। वहाँ चार वर्ष रहकर एक न्यायाचार्य के पास तर्क सिद्धान्त आदि का विशेष अभ्यास किया। आगरा तथा अनेक अन्य स्थानों पर आयोजित वादसभाओं में शास्त्रार्थ करके इन्होंने विजय प्राप्त की। यह उल्लेख सुजसवेली भास में आया है। यशोविजय की विद्वत्ता से आकर्षित आगरा के संघ ने मिलकर यशोविजय को 700 रु. भेंट दिया। उन्होंने उस पैसे का उपयोग पुस्तकें खरीदने में, लिखने में एवं पाटा बनाने में खर्च किया और वो पुस्तक एवं पाटा भी वहां के विद्यार्थी को दे दिया। जिनशासन की प्रभावना (मोहब्बतखान के समक्ष अठारह अवधान का प्रयोग) / आगरा से विहार करके नयविजय अपने शिष्य समुदाय के साथ अहमदाबाद गये। उस समय दिल्ली / के बादशाह औरंगजेब की आज्ञा से मोहब्बतखान अहमदाबाद में राज्य करता था। एक बार मोहब्बतखान की सभा में यशोविजय के अगाधज्ञान, तीव्र बुद्धि, प्रतिभा तथा अद्भुत स्मरणशक्ति की प्रशंसा हुई। यह सुनकर मोहब्बतखान को मुनिराज से मिलने की तीव्र उत्कण्ठा हुई। उसने जैन संघ द्वारा यशोविजय को स्वयं की सभा में पधारने की विनती की। निश्चित दिन और समय पर यशोविजय अपने गुरु महाराज साधुओं तथा अग्रगण्य श्रावकों के साथ मोहब्बतखान की सभा में पहुंचे। वहां उन्होंने विशाल सभा के समक्ष अठारह अवधान का प्रयोग करके बताया। इस प्रयोग में अठारह अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा कही गयी बात को बाद में क्रमानुसार वापस कहना होता है। इसमें पादपूर्ति करना, इधर-उधर शब्द कहे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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