________________ विद्याभ्यास एवं आठ अवधान का प्रयोग दीक्षा लेने के बाद स्वयं के गुरु नयविजयगणि के सान्निध्य में यशोविजय ने ग्यारह वर्ष तक संस्कृत और प्राकृत भाषा का व्याकरण, छंद, अलंकार तथा कोश और कर्मग्रंथ इत्यादि का सतत अभ्यास किया। इनकी बुद्धिप्रतिभा तेजस्वी थी, स्मरण शक्ति बलवान थी। वि.सं. 1699 में नयविजय के साथ यशोविजय राजनगर अहमदाबाद नगर में पधारे थे। वहां आकर इन्होंने अहमदाबाद संघ के समक्ष गुरु महाराज की उपस्थिति में आठ बड़े अवधानों का प्रयोग करके बताया। इसमें उन्होंने आठ सभाजनों द्वारा कही हुई आठ-आठ वस्तुओं को याद रखकर फिर क्रम से उन 64 वस्तुओं को कहकर बताया। इनके इस अद्भुत प्रयोग से उपस्थित जन-समुदाय आश्चर्यमुग्ध हो गया। इनकी तीक्ष्ण बुद्धि तथा स्मरण शक्ति की प्रशंसा चारों तरफ होने लगी। जैसे मुनिसुन्दरसूरि 'सहस्रावधानि' एवं सिद्धचन्द्रगणि 'शतावधानी' के रूप में विख्यात हैं, वैसे ही यशोविजय ने कई प्रकार के अवधानों के प्रयोग किए। धनजीसूरा की विज्ञप्ति एवं स्वीकार ___ इस अवधान के प्रयोग से प्रभावित होते हुए धनजीसूरा नाम के एक श्रेष्ठी ने नयविजय से (विज्ञप्ति) विनती करते हुए कहा-"गुरुदेव यशोविजय ज्ञान प्राप्त करने के लिए योग्य पात्र हैं। यदि ये काशीनगर जाकर छः दर्शनों का अभ्यास करेंगे, तो जैनदर्शन को अधिक उज्ज्वल बनायेंगे एवं दूसरे हेमचन्द्र का रूप धारण कर सकते हैं। उस समय काशी के पण्डित बिना पैसा नहीं पढ़ाते थे। नयविजय ने कहा कि यह कार्य धन के आधीन है, अजैन कभी बिना स्वार्थ शास्त्रों का बोध नहीं कराते।" . . 'धनी सूरा' ने खर्च के लिए उत्साहपूर्वक दो हजार चांदी की दीनारों की हुण्डी लिखकर काशी भेज दी। नयविजय ने मुनि यशोविजय, विनयविजय आदि साधुओं के साथ काशी की तरफ विहार किया। काशी में षड्दर्शनों के सर्वोच्च पण्डित और नव्यन्याय के प्रकाण्ड ज्ञाता-ऐसे एक भट्टाचार्य थे। उनके पास न्यायमीमांसा, सांख्य-वैशेषिक आदि दर्शनों का अभ्यास करने में आठ-दस वर्ष लगते, परन्तु यशोविजय ने उत्साहपूर्वक तीन वर्ष में सभी दर्शनों का गहरा अभ्यास कर लिया। अपने विद्यागुरु भट्टाचार्य के पास नव्यन्याय जैसे कठिन विषय का तथा तत्त्वचिंतामणि नामक दुर्बोध ग्रंथ का अभ्यास यशोविजय ने बहुत अच्छी तरह कर लिया। | काशी में न्यायविशारद तथा तार्किक शिरोमणि के विरुद से सुशोभित उन दिनों काशी के समान कश्मीर विद्या का बड़ा स्थान माना जाता था। एक दिन कश्मीर से एक संन्यासी बहुत स्थानों पर वाद में विजय प्राप्त करके काशी में आया। उसने काशी में वाद के लिए घोषणा की परन्तु इस समर्थ पण्डित से वाद-विवाद करने का किसी का भी साहस नहीं हुआ, कारण यह कि वाद में पाण्डित्य के अलावा स्मृति, तर्कशक्ति वादी के शब्द या अर्थ की भूल को तुरन्त पकड़ने की सूझ, प्रत्युत्पन्नमति आदि की आवश्यकता रहती है। काशी की प्रतिष्ठा का प्रश्न खड़ा होने पर भट्टाचार्य के शिष्यों में से युवा शिष्य यशोविजय उसके लिए तैयार हुए। भट्टाचार्य ने यशोविजय को आशीर्वाद दिया। वादसभा हुई। कश्मीरी पण्डित को लगा कि यह युवक मेरे सामने कितने समय टिकेगा। वाद-विवाद बराबर जम गया। धीरे-धीरे पण्डित घबराने लगे। उसे दिन में तारे नजर आने लगे। बाद में यशोविजय के द्वारा एक के बाद एक ऐसे प्रश्न पूछे गए कि वादी पण्डित उसका जवाब नहीं दे सका। अंत में उसने पराजय स्वीकार कर ली और काशी से भाग गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org