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________________ पद्मसिंह बीजो वलीजी, तस बांधय गुणवंत। तेह प्रसंगे प्रेरियो जी ते पण थयो व्रतवंत।। विजयदेव गुरु हाथनीजी, बड़ी दीक्षा हुई खास। बिहु ते सोल अठियासियेंजी करता योग अभ्यास / / गुरु परम्परा उपाध्याय यशोविजय ने स्वोपज्ञ प्रतिमाशतक एवं अध्यात्मोपनिषद् नामक कृति की वृत्ति में अपनी गुरु परम्परा का परिचय दिया है। इसमें उन्होंने अकबर प्रतिबोधक हरीविजय से अपनी गुरु-परम्परा की शुरुआत की। जगद्गुरु बिरुद को धारण करने वाले हीरसूरीश्वर महाराज के शिष्य और षड्दर्शन की विद्या में विशारद ऐसे महोपाध्याय कल्याणविजय गणि हुए। उनके शिष्य शास्त्रवेत्ताओं में तिलक समान पंडित लाभविजयगणि हुए। उनके शिष्य शिरोमणि जितविजय गणि के गुरुभाई पंडित नयविजयगणि थे। उनके चरण कमल में भ्रमर अनुरक्त समान पंडित पद्मविजयगणि के सहोदर न्यायविशारद महोपाध्याय श्री यशोविजयगणि हुए। इस परम्परा के साथ "श्रीपाल राजा के रास" नाम की कृति में विनयविजय गणि का जो परिचय दिया है, उसका विचार करते हुए गुरु-परम्परा की रूपरेखा निम्न हो सकती है। यशोविजय गणि ने अपने गुरु, प्रगुरु एवं प्रगुरु के गुरु को विशेषणों से विभूषित किया है, जैसे-नयविजय को विषुध एवं प्राज्ञ, जीतविजय को "बुध"," लाभविजय को "व्याकरण विशारद"," कल्याणविजय० को "वाचक"। वादि "गज केसरी" कहा है। गुरु-शिष्य परम्परा हीरविजयसूरि महाराज उपा. कल्याणविजय विजयसेनसूरि . उपा. कीर्तिविजय पन्यास लाभविजय गणि विजयदेवसूरि उपा. विनयविजय जीतविजयगणि नयविजयगणि विजयसिंहसूरि विजयप्रभसूरि पद्मविजय यशोविजय क्रियोद्धारक प. सत्यविजय गुरु-परम्परा की रूपरेखा देखने के बाद अब यशोविजय के शिष्य-प्रशिष्य को जानने के लिए प्रतिमाशतक की उपयुक्त प्रस्तावना एवं आठ दृष्टि की सज्जाय और उनके टब्बा को लीपिबद्ध करते Jain Education International For Personal www.jainelibrary.org Private Use Only
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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