________________ कम्पयडि की वृहदवृत्ति के अंत में जो प्रशस्ति है, उनके चौथे पद में निम्न उल्लेख किया है तत्पादाम्बुज डु, पदमविजयप्रसानुजन्मा बुध। सतत्वं किंचिदिदं यशोविजय इत्याख्यामृदा ख्यातवान।।" यहां अनुजन्मन् को तत्पुरुष का प्रयोग करें तो यशोविजय पद्मविजय के अनुज होते हैं और बाहुब्रीहि का प्रयोग करें तो पद्मविजय यशोविजय के अनुज होते हैं। पूत के लक्षण पालने में यशोविजय की माता सौभाग्यदेवी का यह नियम था कि रोज सुबह भक्तामर स्तोत्र सुनने के बाद ही भोजन ग्रहण करना। चातुर्मास में वह रोज उपाश्रय में जाकर गुरु महाराज से भक्तामर सुनती थी। यशवंत भी साथ में जाता था। एक बार श्रावण माह में मूसलाधार वर्षा हुई। लगातार तीन दिन तक पानी गिरता रहा। सौभाग्यदेवी को तीन दिन के उपवास हो गए। चौथी सुबह भी जब सौभाग्यदेवी ने कुछ नहीं खाया तो बालक यशवंत ने कौतुहलवश सहज इसका कारण पूछा, तब माता ने अपने नियम की बात कही। यह सुनकर यशवंत ने कहा-माँ मैं भक्तामर सुनाऊँ, मुझे आता है। यह जानकर माता को आश्चर्य हुआ। बालक ने शुद्ध भक्तामर स्तोत्र सुनाया। माता के हर्ष का पार नहीं रहा। माता ने अट्ठाई का पारणा किया। बालक यशवंत रोज माता के साथ गुरु महाराज के पास जाता था और भक्तामर सुनता था, यह उसे कण्ठस्थ हो गया था। बालक की ऐसी अद्भुत स्मरण शक्ति की बात सुनकर गुरु महाराज भी आनन्दित हुए।) पूज्य नयविजय का चातुर्मास एवं समागम - अणहिलपुर पाटण के पास आया हुआ कुणगेर गाँव, जहाँ 1688 में पू. नयविजय का चातुर्मास हुआ था। संस्कृत कृतियों में जो कुमारगिरि का उल्लेख आया है, वह ही यह कुणगेर है।" चातुर्मास पूर्ण होते ही नयविजय कनोडु गाँव में पधारे। उनकी वैराग्यमयी वाणी सुनने का योग बंधुजोड़ी को प्राप्त होता है। दोनों के हृदय में संसार को छोड़कर संयम के पथ पर चलने की भावना जागृत हुई। उसी भावना को दृढ़ करते हुए अंतर्मन से वडिलो के समक्ष दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। गुरु के उपदेश से जिनको धर्म की प्राप्ति हो चुकी है, ऐसे माता-पिता ने भी दोनों को आशीष देते हुए कहा कि तुम्हारा कल्याण हो। गुरु-महाराज के साथ विहार में विचरना, तलवार की धार सम चारित्र-पालन का अभ्यास करना और सच्चा साधु बनना, इस तरह से पूज्य नयविजय एवं जशवंत (यशोविजय), पद्मसिंह (पद्मविजय) दोनों का समागम हुआ और माता-पिता से अनुमति प्राप्त की। मुनि जीवन (दीक्षा, बड़ी दीक्षा) __ कन्होडु से विहार करके पूज्य नयविजय पाटण पधारे। वहां पर जाकर प.पू. नयविजय के पास यशवंत ने दीक्षा ली। इनका नाम श्री जशविजय (यशोविजय) रखा गया। सौभाग्यदेवी के दूसरे पुत्र पद्मसिंह ने भी दीक्षा ली। उनका नाम पद्मविजय रखा। दोनों मुनियों की 1688 में तपागच्छ के आचार्य विजयदेवसूरि के हाथ से बड़ी दीक्षा हुई। "सुजसवेली भाष''15 में लिखा है अणहिल पुर पाटण जईजी, ल्यई गुरु पास चरित्र। यशोविजय ऐहणी करीजी, थापना नामनी तत्र।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org