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________________ क्रियाओं से सर्वथा सन्दर्भित है। व्यवहार योग की देशनाओं का प्रदर्शन करता चलता है जबकि निश्चयनय आत्मवाद के उच्च तत्त्वों पर निरन्तर चलता रहता है। अतः व्यवहार और निश्चय से भी एकदम अधिगम्य अवबोधित होता है। योग एक ऐसे अधिकारों को संकलित करता है, जो व्यक्तियों को आत्मानुशासन, शब्दानुशासन एवं संयमित रहने का विधान सिखाता है, हेय-उपादेय के विपाक से विवेचित रखता है। योग के अधिकारी वे भी रहे हैं, जिन्होंने निरोधों को, निग्रहों को, परिग्रहों को परिचित बनाया है। योगसाधना का महत्त्व हमारे वाङ्मयी वसुधारा का कल्पतरु है। अप्रमत्तता योग की उच्च, उत्कृष्ट, उत्तम भूमिका है। इसलिए इस योग साधना को साधने वाले साधक निश्चयतः से आत्मविकास करते हुए नित्य अप्रमत्त रहते हैं। योग का स्वीकार कर योग के लक्षण, योग की परिभाषाएँ, योग के अधिकारी, योग के भेद-प्रभेद, योग शुद्धि के कारण, योग में बाधक एवं साधक तत्त्व, योग की विधि परिलब्धियां एवं दृष्टियों को बताते हुए उपाध्याय एक विशिष्ट आध्यात्मिक योगी के रूप में परिलक्षित हुए हैं। इस योग के प्रायः सभी विषय में उपाध्यायजी ने अन्य दर्शनों का समन्वय दिखाया है। जैसे कि मोक्षेण योजनादेव योगो हयत्र निरूध्यते यह योग का एक ऐसा लक्षण है जिसमें समस्त दर्शनकारों के योग का लक्षण समाविष्ट हो जाता है, क्योंकि सभी दर्शनकारों का अन्तिम ध्येय मोक्ष है और वह अकुशल प्रवृत्ति के निरोध से ही संभव है। साथ ही उन्होंने योग के अधिकारी, अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरती, सर्वविरती रहकर उपाध्यायजी ने योगविंशिका में बताये गये स्थानादि 5 योगों की भी तुलना की है। . उपाध्यायजी ने अपनी आठ दृष्टि की रचना करके अपने चिंतन रूप नवनीत को पातंजल योगदर्शन के यम, नियम आदि आठ योगांगों के साथ समन्वय किया है। जो मनोयोगपूर्वक इन दृष्टियों का अभ्यास करते हैं, उनको यम नियमादि आठ योगांगों की सिद्धि होती है। खेद, उद्वेग आदि अवगुणों का नाश होता है एवं अद्वेष, जिज्ञासा आदि गुणों की प्राप्ति होती है। प्राचीन जैनागमों में प्रतिपादित ध्यान विषयक समग्र विचार सरणि से उपाध्याय यशोविजय सुपरिचित थे। साथ ही वे सांख्य योग, शैव पाशुपत और बौद्ध दर्शन आदि परम्पराओं में योगविषयक प्रस्थानों के भी विशेष परिचित एवं ज्ञाता थे। अतः उनकी चिंतनधारा किसी विशाल दृष्टिकोण को लेकर चली, जो भिन्न-भिन्न परम्पराओं में योगत्व के विषय में मात्र मौलिक समानता ही नहीं किन्तु एकता थी। यशोविजय ने देखा कि सच्चा साधक भले ही किसी भी परम्परा का हो, उसका आध्यात्मिक विकास तो एक ही क्रम से होता है। उसके तारतम्य युक्त सोपान अनेक हैं परन्तु विकास की दिशा तो एक ही होती है। अतः भले ही उसका प्ररूपण विविध परिभाषाओं में हो, विभिन्न शैली में हो परन्तु प्ररूपण का आत्मा तो एक ही होगा। यह दृष्टि उनकी अनेक योग ग्रंथों के अवगाहन फलस्वरूप बनी होगी। इस प्रकार उपाध्यायजी ने योग सिद्धान्तों में स्थान-स्थान पर अन्यदर्शनों के योगों का समन्वय करके योग के माहात्म्य एवं वैशिष्ट्य को उजागर किया है। उपाध्याय यशोविजय ने सप्तम अध्याय भाषा-दर्शन में बताया है कि हमने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं के कुछ शब्द प्रतीक बना लिये हैं और भाषा हमारे इन शब्द प्रतीकों का ही एक सुनियोजित खेल है। संक्षेप में कहें तो हमने उन्हें नाम दे दिये हैं और इन्हीं नामों 579 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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