________________ के स्वामी, कर्म का वैशिष्ट्य का विशद विवेचन उपाध्यायजी ने किया है। उपाध्यायजी का कर्मवाद की मीमांसा में विशेष योगदान रहा है। उन्होंने कम्मपयडी की टीका में कर्मवाद को पुष्ट किया है। ___इस प्रकार कर्म की भूमिका जीव के साथ अखंड, अमर एवं शाश्वत है। इसे जैनदर्शन ने स्वीकार किया और बन्धमुक्त के उपायों का अन्वेषण कर उपादेय तत्त्वों की विचारणाएँ विविध भांति से कर्मग्रंथों में मिलती है। कर्मवाद की स्पष्ट विवेचनाएँ पूर्यों में भी मान्य हुई है। जैसे कर्मप्रवाद आदि पूर्व इसके परिचायक हैं। अतः कर्ममुक्त होने का उपाय वाचकवर उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्ट दिया है-कृत्सन्न कर्मक्षयोः मोक्षः-सम्पूर्ण कर्मों के क्षय की स्थिति का नाम मोक्ष है। मोक्ष ही कर्मबन्ध रहित रहने वाला ऐसा स्थान है, जहाँ कर्म स्वयं दूर हो जाता है। कर्म की परिभाषाओं का कर्म के स्वरूप को और कर्म , की पौद्गलिकता को प्रस्तुत कर कर्मवाद की अभिव्यक्ति की है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया का परिपूर्ण अभ्यास करके कर्मों के स्वभाव उनके भेद-प्रभेदों का विवेचन किया है। कर्म और पुनर्जन्म की गहन ग्रंथियों पर प्रकाश डाला गया है। कर्म और जीव के अनादि संबंध का स्वरूप दिखाकर कर्म के विपाक को वर्णित किया गया है। सर्वथा कर्मक्षय कैसे हो? कर्म के विपाक को वर्णित किया गया है। कर्म का स्वरूप गुणस्थानकों में एवं कर्म का वैशिष्ट्य व्यवस्थित रूप में विवेचित किया गया है। कर्म सिद्धान्त के वैशिष्ट्य से विशिष्ट आत्माएँ बाह्य भौतिक सुख-सुविधाओं में शायद शून्य हो सकती हैं लेकिन आध्यात्मिक आत्मवैभव से आपूरित है। उत्तरोत्तर समुत्थान मार्ग को संप्राप्त करती रहती है। उपाध्याय यशोविजय ने कर्म सिद्धान्त जैसे गम्भीर, गहन और व्यापक विषय को आगमिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषित किया, यह उनकी बहुमुखी प्रतिभा का ही सूचक है। उपाध्याय यशोविजय ने कर्म की मीमांसा के बाद योग को अनेक वैशिष्ट्य से विशिष्ट बनाया है। उनका अपना वैदुष्य विरल एवं विशाल था। अपने आत्मवैदुष्य से उन्होंने योग को समलंकृत बनाया। उन्होंने हरिभद्र सूरि जैसे ही योग के संबंध में ऐसी श्रेष्ठ कृतियों की रचना की है, जो योग परम्परा में आज भी अद्वितीय विशेषता रखती है। योग अपने आप में निष्पन्न, व्युत्पन्न ज्ञानगुण वाला रहा है, फिर भी इसके उद्गम, उदय एवं आविर्भाव के विषय में काल गणनाएँ हुई हैं। यह योग शब्द चिरन्तन साहित्य में भी आया है और योग क्रिया के विषय में मान्यताएँ, महत्ताएँ प्रज्वलित बनी हैं। किसी-किसी ने चित्र बुद्धि आत्मतत्त्व के संयम को योग कहा है, किसी ने चित्तवृत्ति निरोध को योग कहा है। उपाध्यायजी ने मोक्षेण योजनादेव योगो ह्ययत्र निरूध्यते को योग माना है। योग सचमुच एक ऐसा मौलिक साधनामय सुमार्ग है, जिसमें निरोध से अवबोध प्रकट होने का अवसर दिया है। हम योग की परिभाषाएँ बौद्ध वाङ्मय, श्रमण वाङ्मय एवं वैदिक वाङ्मय में भी पढ़ते हैं। इस प्रकार योग आर्य संस्कृति का आत्मिक आधारस्तम्भ गिना गया है। योग में श्रमणधारा और वैदिक विचारणाएँ एक जैसी मिलती हैं इसलिए पतंजलि के योगसूत्रों पर उपाध्याय यशोविजय ने टीका लिखी। योग एक ऐसा साधना सुपथ है, जहाँ स्वरूप होकर रहने का सुअवसर समुपलब्ध होता है। योग को व्यवहारनय से और निश्चयनय से प्ररूपित करने का विचार निर्ग्रन्थ वाङ्मय में समुपलब्ध होता है। एक तरफ आत्मिक विज्ञान और दूसरी तरफ जीवन व्यवहार का विज्ञान दोनों योग 578 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org