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________________ के माध्यम से हम अपने भावों, विचारों एवं तथ्य संबंधी जानकारियों का सम्प्रेषण दूसरों तक करते हैं। विश्व के सभी प्राणी अपनी भावनाओं एवं अनुभूतियों की अभिव्यक्ति दो प्रकार से करते हैं-शारीरिक संकेतों के माध्यम से और ध्वनि संकेतों के माध्यम से। इन्हीं ध्वनि संकेतों के माध्यम से ही भाषाओं का विकास हुआ। भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में विभिन्न सिद्धान्त प्रचलित हैं किन्तु इनमें प्राचीनतम सिद्धान्त भाषा की दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त है, जो यह मानता है कि भाषा की रचना ईश्वर के द्वारा की गई है। अन्य दार्शनिकों ने भी अपने-अपने मत प्रस्तुत किये हैं किन्तु भाषा ईश्वरसृष्ट न होकर अभिसमय या परम्परा से निर्मित है। उनके अनुसार भाषा कोई ऐसा तथ्य नहीं है, जो बनी बनाई मनुष्य को मिल गई है। भाषा बनती रहती है, वह स्थिर नहीं अपितु सतत् रूप से गत्यात्मक (डायनिमिक) है। वह किसी एक व्यक्ति की, चाहे वह ईश्वर हो या तीर्थंकर की रचना नहीं है अपितु कालक्रम से परम्परा से विकसित होती है। भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में वही ऐसा सिद्धान्त है, जो जैनों को मान्य हो सकता है। भाषा का प्रयोजन यानी भाषा का अगर ज्ञान नहीं होगा तो हम कुछ भी चिंतन, मनन, विचार, व्यवहार नहीं कर सकते हैं। कई बार भाषा का ज्ञान नहीं होने के कारण अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है और वह अनर्थ पाप का कारक एवं अन्य का मारक बनता है इसलिए भाषा के साथ-साथ भाषा विशुद्धि भी बहुत ही उपयोगी है। अगर भाषा का ज्ञान है पर उनकी शुद्धि नहीं है तो भी अनर्थ खड़ा हो सकता है। जैसे कुंती कुती विषं दधात् का विषां दघात् ऐसा परिवर्तन होने से मौत के स्थान में राजकन्या। सार्वभौम साम्राज्य आदि पाने का दृष्टान्त भी सुप्रसिद्ध है। ऐसे तो अनेक प्रसंग हैं जो . भाषाविशुद्धि की उपादेयता एवं भाषा अविशुद्धि की हेयता को घोषित कर रहे हैं अतः भाषा का प्रयोजन अनिवार्य एवं आवश्यक है। भाषा पद के निक्षेप का वर्णन करते हुए उपाध्यायजी ने कहा है कि जिससे प्रकरण आदि के अनुसार अप्रतिपादी आदि का निराकरण होकर शब्द के वाच्यार्थ का यथास्थान विनियोग होता है, ऐसी रचना विशेष को निक्षेप कहते हैं। उन्होंने निक्षेप के भेद बताते हुए कहा है कि नामाइ निक्खेवा चउरो, चउरेहि एन्य णायव्वा, दव्वे तिविहा गहणं तह व निसिरणं पराधाओ। निक्षेप चार प्रकार के हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य के तीन भेद हैं-ग्रहणं, मिसरणं और परघात। उपाध्याय यशोविजय ने द्रव्यभाषा का लक्षण बताते हुए कहा है वस्तु तस्तु भावभाषा भिन्नत्वे सति भावभाषा जनकत्वस्यैव स्वरूपते द्रव्यभाषा लक्षणम् ग्रहणादि तीन भाषा विवक्षा से द्रव्यभाषा है। ___ भाष्यमाण भाषा अर्थात् भाषण काल में भी भाषा होती है। यह भाषा लक्षण में दोषग्रस्त है। भाष्यमाण भाषा सिद्धान्त क्रियारूप भावभाषा के उद्देश्य से है। सांप भी न मरे और लाठी भी न टूटे-ऐसा मार्ग लेने से कोई बाधा नहीं आती है। ऐसा सोचकर उपाध्याय यशोविजय ने भाषा रहस्य ग्रंथ में कहा है-भावभाषा दो प्रकार की है-क्रियारूप भावभाषा एवं परिणामरूप भावभाषा। क्रिया शब्द से यहाँ निसरण क्रिया ग्राह्य है और परिणाम शब्द से शब्द परिणाम ग्राह्य है। भाष्यमाण भाषा सिद्धान्त वचन में निसर्ग क्रियारूप भावभाषा अभिप्रेत है। शब्द परिणामरूप भावभाषा नहीं। तात्पर्य यह है कि जो निसर्ग क्रियारूप भावभाषा है, वह भाष्यमाण वर्तमानकालीन की विषयभूत होती है, अविषयभूत नहीं। भावभाषा का लक्षण बताते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि उपयोग वाले जीवों की 580 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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