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________________ प्राधान्य बताकर बौद्धों में क्षणिकवाद का निरसन किया है। बौद्धों के द्रव्य का लक्षण जो अर्थक्रियाकारित्व करता है, उसमें जो दोष हो रहे हैं, वो बताते हुए उपाध्यायजी बौद्धों की अन्वय एवं व्यतिरेक व्याप्ति का दोष समझाते हैं। बौद्ध बीज में रहे हुए बीजत्व के अंकुर उत्पन्न होने का कारण गिनता है किन्तु वह व्याप्ति सही नहीं है। बीज उत्पन्न होने का कारण बीजत्व है, साथ ही सहकारी कारण जमीन, पानी आदि भी जरूर होते हैं। इस नियम को समझाकर सौत्रान्तिक, वैभाषिक, शून्यवाद, विज्ञानवाद, अनात्मवाद-इन सबका सुर जो यत् यत् सत् तत् तत् क्षणिकम् जो एकान्त गिनकर दोषयुक्त दिखाते हैं और प्रभु के व्यवहार विशुद्ध नय को मुख्य स्थान दिया है। उनके बाद काल एवं देश का स्वरूप समझाते हैं। न्यायखंडखाद्य का पहला भाग तो बौद्धों के क्षणिकवाद का परिघर करने में ही पूरा हो गया है। न्यायदर्शन की कूटस्थ नीति भी दिखाने में आई है। द्रव्य को एकान्त नित्य या अनित्य मानने में उत्पन्न होने वाले दोषों को बताकर उनकी नित्यानित्य या कथंचिद् नित्य मानने की व्यवहारविशुद्ध नय की श्रेष्ठता बताई है। उसके बाद द्रव्य की उत्पत्ति एवं नाश का हेतु समझाकर वस्तु में रहे हुए भेदाभेद बताकर प्रत्यक्ष एवं प्रत्यभिज्ञा का स्वरूप दिखाया है। इस तरह सम्पूर्ण नव्यन्याय की शैली से उपाध्याय विरचित न्यायखांडखाद्य ग्रंथ बहुत ही सूक्ष्म, जटिल एवं रहस्यमय है। मल्लिषेणसूरि रचित स्याद्वादमंजरी को बाद करके इस युग के फलायमान न्यायविषय के उच्च साहित्य पर नजर करें तो पता चलता है कि यह पूरा साहित्य अनेक व्यक्तियों के हाथ की रचना नहीं है बल्कि 17वीं-18वीं सदी में हुए उपाध्याय यशोविजय की स्वयं की रचनाएँ हैं। उपाध्यायजी के जैन तत्त्वज्ञान, आचार, अलंकार, छंद आदि अनेक विषयों के ग्रंथों को छोड़कर सिर्फ न्यायविषयक ग्रंथ पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि सिद्धसेन से सम्मतभद्र, वादी देवसूरि, हेमचन्द्र तक जैन न्याय का जितना विकास हुआ था, वो सम्पूर्ण विकास उपाध्यायजी के तर्कग्रंथों में मूर्तिमान है। तदुपरान्त उन्होंने एक चित्रकार की सूक्ष्मता, स्पष्टता एवं समन्वय के रंग भूरे हैं, जिसमें मुदितमना हो गई हो, ऐसा लगता है। प्रथम तीन युग यानी (दिगम्बर और श्वेताम्बर) सम्प्रदाय का जैन न्यायविषयक साहित्य अगर उपलब्ध न हो पर सिर्फ उपाध्यायजी का जैन न्यायविषयक सम्पूर्ण साहित्य उपलब्ध हो जाए तो भी जैन वाङ्मय कृतकृत्य है। जैन तर्क भाषा जैसे जैन न्याय प्रवेश के लिए लघुग्रंथ की रचना करके, जैन साहित्य में तर्क संग्रह एवं तर्क भाषा की कमी पूर्ण की है। न्यायदर्शन में गंगेश उपाध्याय के बाद नव्य न्याय की प्रणाली का प्रारम्भ हुआ। उनका विचार उपाध्यायजी के समय में पूर्ण कक्षा तक पहुंचा है, ऐसा कह सकते हैं। रघुनाथ शिरोमणि, गदाधर, जगदीश आदि नव्य न्याय के ग्रंथ सूक्ष्म तर्क सरणि में अग्रिम हैं। जैन दर्शन में उस शैली का प्रतिपादन उपाध्यायजी ने किया है, उसमें कोई कमी नहीं रखी है। ___ अष्टसहस्री, शास्त्रवार्ता समुच्चय की कल्पलता टीका, अनेकान्त व्यवस्था, नयोपदेश, नयामृत तरंगिणी, वादमाला, न्यायखंडन खाद्य, ज्ञानार्णव, ज्ञानबिन्दु, तत्त्वार्थटीका-प्रथम अध्याय आदि ग्रंथों को देखें तो नव्यन्यायशैली पर उनका प्रभुत्व इतना था कि उनके सामने गंगेश उपाध्याय को भी बहुमान भाव उत्पन्न होता था। उपाध्यायजी की कलम में खण्डन शक्ति के साथ समन्वय करने की भी शक्ति थी। 551 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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