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________________ अध्यात्म परीक्षा, प्रतिभाशतक, धर्म परीक्षा, गुरु तत्त्व विनिश्चय गाथा आदि स्तवनों आदि में परमत खंडन करने की शक्ति का पूर्ण परिचय मिलता है, उनके साथ ज्ञानबिन्दु आदि में उनकी समन्वय शक्ति का परिचय मिलता है। न्याय के क्षेत्र में उपाध्यायजी के न्याय विषयक दार्शनिक ग्रंथों पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि उन्होंने न्यायविषयक 100 ग्रंथों की रचना करने में दो लाख श्लोकप्रमाण की रचना कनके जैन साहित्य में, जैन दर्शन में या भारतीय दर्शन में चार चांद लगा दिए हैं। अन्य सन्दर्भ में _ अन्य सन्दर्भ में मुख्य अनेकान्तवाद आता है जो एकान्त के विरुद्ध आवाज उठाता है। सर्वदृष्टि से सन्तुलित शुद्ध ऐसा दृष्टिकोण दर्शित करना यह अनेकान्त का उद्देश्य है। इसमें न तो हठधर्मिता है, न कदाग्रहता है, न किसी प्रकार की विसंगतियाँ हैं। एक ऐसी विशुद्ध धारा सर्वदृष्टि से सुमान्य, वह है-अनेकान्त दृष्टिकोण। जिस अनेकान्त विषय को उपाध्याय यशोविजय ने अनेकान्त व्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित किया है, ऐसी अनेकान्तवादिता के आश्रय से हम आग्रहरहित अनुनयी बने रहते हैं। प्रत्येक पदार्थ को अनेकान्त दृष्टि से स्वीकार करते हुए निर्बन्ध रूप में निर्मल रहता है। निर्मलता ही निश्चय नय की भूमिका का भव्य दर्शन है। इनकी अभिव्यक्त शैली स्याद्वाद किसी को अनुचित रूप से उल्लिखित नहीं करता हुआ गुणग्राहिता के गौरव देता है, सर्वदर्शी सही बना रहता है। इस स्याद्वाद की श्रेष्ठ भूमिका को भाग्यशाली बनाने के लिए मल्लवादी, आचार्य सिद्धसेन, आचार्य हरिभद्र और उपाध्याय यशोविजय आदि प्रमुख रहे हैं। इन्होंने अनेकान्त को जैन दर्शन का उच्चतर उज्ज्वल दृष्टिकोण दर्शित कर दर्शन जगत् को एक दिव्य उपहार दिया है। जब दार्शनिक संघर्ष सबल बन गया, तब श्रमण भगवान महावीर ने एक अभिनव दृष्टिकोण को आविर्भूत कर अनेकान्त का श्रीगणेश किया, जो हमारे जैन दर्शन का अभिनव अंग है, जिस पर अगणित ग्रंथों की रचना हुई और स्याद्वाद सिद्धान्त की प्ररूपणा हुई। इसी अनेकान्तवाद को सप्तभंगी रूप में समुपस्थित कर सर्वहित में एक शुद्ध शुभाशुभ अभिव्यक्त किया है। यह सप्तभंगी नय न्यायदाता है और नवीनता से प्रत्येक को निरखने का नया आयाम है। सभी गुणों का संग्राहक होकर उसका सत्स्वरूप, असत्स्वरूप, बाह्यस्वरूप, वाच्यस्वरूप, अवाच्यस्वरूप अभिव्यक्त करना, यह सप्तभंगी का शुभ आशय रहा है। इस आशय पर तीर्थंकर भगवंतों की स्तुतियां हुईं, द्वात्रिंशिकाएँ बनीं और ऐसी सुन्दर लोकभाषा में स्तवन बने। आनन्दघन जैसे आध्यात्मिक पुरुषों ने सप्तभंगी को परमात्म स्तुति अभिवर्णित कर अपना भक्ति प्रदर्शन भावपूर्ण बनाया। इसी सप्तभंगी पर द्रव्यानुयोग की रचना हुई और गहनतम, गम्भीर विषयों की विवेचनाएँ वर्णित हुईं। इसी द्रव्यानुयोग का अध्ययन श्रमण परम्परा में प्रमाणित माना गया, अतः अनेकान्तवाद आगमों के आधारों का आश्रयस्थल बना। अनेकान्तवादी किसी भी दुराग्रह से दुखित नहीं मिलेंगे। ये सभी के प्रति समन्वयवादी रहते हैं, और स्वयं में सुदृढ़, सुशान्त, स्पष्टवादी रहता हुआ, स्याद्वाद की भूमिका को निभाता है। इसलिए हमारी निर्ग्रन्थ परम्परा दर्शनवाद के दुराग्रह से सुदूर रहती हुई अनेकान्तवाद की उच्च भूमि पर अचल रहती है। अन्यों से अनवरत आदर-सम्मान सम्प्राप्त करने में उपाध्याय यशोविजय अद्वितीय रहे हैं। इनका दार्शनिक जीवन दिगदिगन्त तक यशस्वी बना है। प्रत्येक दार्शनिक आम्नाय ने इनके मन्तव्यों को महत्त्व दिया है और इनके सिद्धान्तों की सराहना की है। स्व-सिद्धान्त के प्रतिपादन में उपाध्यायजी एक नैष्ठिक, 552 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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