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________________ उपाध्यायजी ने न्याय के केवल 100 ग्रंथ लिखे थे। 100 ग्रंथ दो लाख श्लोक प्रमाण हैं। इसलिए भट्टाचार्य ने प्रसन्न होकर न्यायाचार्य का विरुद दिया। जैन न्याय के क्षेत्र में उपाध्यायजी अपनी लेखनी अनवरत चलाते रहे। वे न्याय के इतने पारंगत थे कि आज भी उनके स्तूप में से उनके स्वर्गवास के दिन न्याय की ध्वनि निकलती है। ऐसा इस पद से उद्घोषित होता है सीत तलाई पारवती, तिहां थूभ अंछै ससनूरो रे। ते मांहिथी ध्वनि न्याय नी, प्रगटे निज दिवसि पडूरो।। भारतीय दर्शनों की विभिन्न परम्पराओं के निर्माण में सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं बल्कि समान विचार वाले एक वर्ग की बुद्धि काम कर रही है।। __ आचार्य गंगेश द्वारा भारतीय दर्शन में नव्य न्याय की स्थापना के उस विचार को व्यक्त करने की नई प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ। उनके बाद सभी दर्शनों को उस न्यू शैली का आश्रय लेना पड़ा। व्याकरण, अलंकार आदि में भी नव्य न्याय की शैली का उपयोग हुआ, किन्तु वह शैली के चार सौ वर्ष जाने के बाद भी जैन दर्शन में उस शैली का प्रवेश नहीं हुआ था। चार सौ वर्ष के विकास से जैन दर्शन एवं जैन धर्म संबंधी समस्त साहित्य से सम्पूर्ण वंचित था। भारतीय साहित्य के सभी क्षेत्रों में इस नवीन न्याय की शैली का प्रवेश हुआ किन्तु जैन साहित्य उससे वंचित रहा। उनमें जैनाचार्यों की शिथिलता ही कारण है, क्योंकि अपने शास्त्रों को नित्यनूतन रखना हो तो जो-जो अनुकूल या प्रतिकूल विचार अपने समय तक विस्तर्या हो, उनका यथायोग्य रीति से अपने शास्त्रों में समावेश करना आवश्यक है, अन्यथा वे शास्त्र दूसरे शास्त्रों की तुलना में नहीं आ सकते हैं। ___ उन्हीं चार सौ वर्ष के विकास का समावेश करने का श्रेय उपाध्याय यशोविजय को है। उनके महान कार्य के बारे में जब सोचते हैं तो उनके सामने नतमस्तक हो जाते हैं। उपाध्यायजी ने अनेक विषयों में ग्रंथ लिखे हैं। अगर न भी लिखे होते तो भी उन्होंने न्याय के क्षेत्र में नव्य न्याय की शैली का अपूर्व प्रयोग करके न्याय के क्षेत्र में चार चांद लगा दिए थे। - 18वीं सदी में उपाध्यायजी ने जो कार्य किया, उसके बाद वो कार्य भी अटक गया। उसके बाद भारतीय दर्शनों में कोई विकास नहीं हुआ। अभी जो विकास दिख रहा है, वो बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का है। डॉ. राधाकृष्णन् ने पश्चिम के दर्शनों का अभ्यास करके पूर्व एवं पश्चिम के दर्शन का समन्वय करके वेदान्त दर्शन की रचना की है। इस तरह भारतीय दर्शनों में वेदान्त पक्ष को अद्यतन बनाने का प्रयत्न किया है। किन्तु आधुनिक दर्शनशास्त्र में से ग्राह्य के त्याज्य का विचार करने वाले अभी तक कोई जैन दार्शनिक नहीं हुए हैं। अब नया कोई नहीं होगा तब तक वाचक यशोविजय जैन दर्शन के लिए अन्तिम प्रमाण हैं। किन्तु इससे यशोविजय की आत्मा को संतोष नहीं होगा। उपाध्यायजी ने अष्टसहस्री जैसे ग्रंथों को दसवीं सदी में से बाहर निकालकर 'अठारहवीं शताब्दी का बना दिया, उस विवरण को जब तक बीसवीं सदी में लाकर नहीं रखेंगे, तब तक उपाध्यायजी भी संतुष्ट नहीं होंगे। न्याय के क्षेत्र में नव्यन्याय की शैली में उपाध्यायजी ने न्याय में 100 ग्रंथों की रचना की। इनसे न्याय खंडन खंडखाद्य ग्रंथ निखरे हैं। उपाध्यायजी ने न्यायखंडखाद्य'08 में प्रभु की स्तुति के उद्देश्य से स्याद्वाद का जो विवेचन दिया है, वो चिन्तनीय, अनुमोदनीय है। उसमें प्रथम प्रभु के अतिशयों का वर्णन करके, वाणी अतिशय का 550 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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