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________________ उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में परमात्मस्वरूप (सर्वज्ञता) का विशेष प्रकार से निरूपण किया है। वे कहते हैं गुणस्थानानि यावन्ति यावन्त्यश्चापि मार्गणा। तदन्यतरसंश्लेषो नैवातः परमात्मनः।। अर्थात् जितने गुणस्थानक हैं तथा जितनी मार्गणाएँ हैं, इनमें से किसी के भी साथ परमात्मा का या शुद्धात्मा का संबंध नहीं है। आगम में आत्मगुण का विकासक्रम बताने के अभिप्राय से गुणस्थानक की व्यवस्था है, उसी प्रकार संसारी जीव की विविधता दिखाने की विवक्षा से मार्गणास्थानक की व्यवस्था दर्शायी गई है। इस प्रकार इस लोक में दृश्य अथवा अदृश्य सभी पदार्थ छः प्रकार की गुण-हानि से विचित्र हैं और न किसी ने बनाये हैं, ऐसा सर्वज्ञ भगवंत कहते हैं। न्याय के सन्दर्भ में न्यायशास्त्र वह शास्त्र है, जिसके द्वारा हम पदार्थों की ठीक-ठीक परीक्षा अथवा निर्णय करते हैं। जिस तरह भाषा को परिष्कृत करने के लिए व्याकरण शास्त्र की आवश्यकता है, उसी तरह बुद्धि को परिष्कृत करने के लिए न्यायशास्त्र की आवश्यकता है। यद्यपि सैकड़ों मनुष्य ऐसे हैं, जो नियमानुसार व्याकरणशास्त्र का अभ्यास नहीं करते किन्तु शुद्ध बोल लेते हैं, इसी तरह हजारों आदमी ऐसे भी हैं, . जो न्यायशास्त्र के अध्ययन के बिना बुद्धि का उचित उपयोग करते हैं। इससे मालूम होता है कि मनुष्य के भीतर बोलने और विचारने की स्वाभाविक शक्ति है। समाज के संसर्ग को अभ्यासवश वह इनका उचित उपयोग करने लगता है, फिर भी शास्त्रों के द्वारा संस्कार करने की आवश्यकता रहती है। हीरा तो खान से निकाला जाता है लेकिन उसे चमकदार बनाने के लिए संस्कार की आवश्यकता निश्चित है। न्यायशास्त्र बुद्धि को संस्कृत करके अर्थसिद्धि के योग्य बना देता है। अर्थसिद्धि में तीन भेद किये जाते हैं1. किसी नई वस्तु का निर्माण करना, 2. इच्छित वस्तु को प्राप्त करना, 3. वस्तु को जानना।105 इनमें न्यायशास्त्र से तीसरी अर्थसिद्धि का ही साक्षात् संबंध है। यद्यपि जब तक तीसरी अर्थसिद्धि न होगी तब तक प्रारम्भ की दोनों सिद्धियां नहीं हो सकती, इसलिए तीनों सिद्धियों के साथ न्यायशास्त्र का संबंध मानना अनुचित नहीं कहा जा सकता, फिर भी तीसरी अर्थसिद्धि ही मुख्य है। वह अर्थसिद्धि लक्षण और प्रमाण से होती है। प्रमाण का एक अंश नय है, इसलिए प्रमाण और नय से भी अर्थसिद्धि मानी जाती है। अगर इसका जरा विस्तार से विवेचन करना हो तो लक्षण, प्रमाण नय और निक्षेप से अर्थसिद्धि मानी जाती है। अगर और भी स्पष्ट विवेचना करना हो तो सप्तभंगी न्याय का भी पृथक् विवेचन किया जाता है। इस तरह न्यायशास्त्र का स्वरूप बहुत विस्तृत है। किन्तु यह सारा विवेचन प्रमाण का ही विस्तार है, इसीलिए प्रमाण के द्वारा अर्थ की परीक्षा करना न्याय कहा जाता है। 106 549 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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