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________________ . जैन दर्शन के मन्तव्यानुसार वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म युगपत् रहते हैं। एक ही वस्तु एक ही समय में उत्पत्तिशील, विनश्वर एवं ध्रुवतायुक्त है। त्रिगुणात्मक वस्तु ही अर्थ क्रिया करने में समर्थ है। अर्थक्रियाकारित्व वस्तु का लक्षण है एवं वह लक्षण एकान्त नित्य एवं अनित्य तथा निरपेक्ष नित्य एवं अनित्य पदार्थ में घटित ही नहीं हो सकता। अर्थक्रियाकारित्व द्रव्यपर्यायात्मक उभयस्वभाव वाली वस्तु में घटित हो सकता है अतः उभयात्मक वस्तु ही वास्तविक सत्ता है। जैन दर्शन में सत्, तत्त्व, तत्त्वार्थ एवं पदार्थ-इन शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में होता रहा है। जो सत् रूप पदार्थ हैं, वे ही द्रव्य हैं, तात्विक हैं। दर्शनशास्त्र में सर्वप्रथम स्वयं के दर्शन से सम्मत तत्त्वों का निर्देश प्रारम्भ में कर दिया जाता है। वैशेषिक सूत्र में द्रव्य आदि छः पदार्थ स्वीकार किये गये हैं। उनमें से द्रव्य, गुण एवं कर्म-इन तीनों को सत् इस पारिभाषिक संज्ञा से अभिहित किया गया है। न्यायसूत्र में प्रमाण आदि सोलह तत्त्वों को भाष्यकार ने सत् शब्द से व्यवहृत किया है। वेदान्त दर्शन में ब्रह्म ही एकमात्र सत् है। जैन आगमों में संक्षेप में जीव एवं अजीव-ये दो तत्त्व तथा विस्तार में नवतत्त्वों का उल्लेख प्राप्त है। .. जैन धर्म के प्रमुख आचार्य तत्त्वव्याख्याता वाचकमुख्य ने सत् का बीज जो भगवान महावीर की वाणी में था, उसका पल्लवन किया। आगमों में तिर्यक और उर्ध्व-दोनों प्रकारों के पर्यायों का आधार द्रव्य को माना है, जो सर्वद्रव्यों का अविशेष है . . अविसेसिए दव्वे विसेसिए जीव दव्वे अजीव दव्वे। .. किन्तु आगमों में द्रव्य की सत् संज्ञा नहीं थी। जब अन्य दर्शनों में सत् इस संज्ञा का समावेश हुआ तब जैन दार्शनिक के समक्ष भी सत् किसे कहा जाए, यह प्रश्न उपस्थित हुआ। . उमास्वाति ने कहा-द्रव्य ही सत् है। 'सद् द्रव्यलक्षणम्'-सत् को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा-'उत्पादव्यध्रौव्ययुक्तं सत्'। ऐसी परिभाषा होने से जैन दर्शन का सत् अन्य दर्शनों से स्वतः ही विलक्षण हो गया तथा जैन दृष्टि से सर्वथा अनुकूल सिद्ध हुआ। वाचक ने सत्य को नित्य कहा किन्तु नित्य की स्वमन्तव्य पोषक परिभाषा करके उसे एकान्त के आग्रह से मुक्त रखा। 'तद्भावाव्यं नित्यम्। उत्पाद और व्यय के होते हुए भी जिसका सद्प समाप्त नहीं होता, यही सत् की नित्यता है। पर्यायों के बदल जाने पर भी द्रव्य की सत्ता समाप्त नहीं होती। वह निरन्तर पूर्व उत्तर पर्यायों में अनुस्यूत होती रहती है। - उमास्वाति ने चतुर्विध सत् की कल्पना की है। सत् को उन्होंने चार भागों में विभक्त किया है1. द्रव्यास्तिक, 2. मातृकापदास्तिक, 3. उत्पन्नास्तिक, 4. पर्यायास्तिक। सत् का इस प्रकार का विभाजन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। यह उनकी मौलिक अवधारणा है। उमास्वाति ने इस चतुर्विध सत् का विशेष व्याख्या नहीं किया। ज्ञान की स्थूलता एवं सूक्ष्मता के आधार पर सत् के चार पदों का निरूपण किया। टीकाकार सिद्धसेनगणि ने इनकी कुछ स्पष्टता की है। प्रथम दो सत् द्रव्यनयाश्रित हैं तथा अन्तिम दो भेद पर्यायनयाश्रित हैं। सत् के चार विभागों के अन्तर्गत आचार्य उमास्वाति ने सत् की सम्पूर्ण अवधारणा को समाहित करने का प्रयल किया है। 520 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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