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________________ . दर्शन का मूल सिद्धान्त है। उनके अनुसार सम्पूर्ण चराचर जगत् क्षणिक है। प्रत्येक क्षण में विनाश स्वयं होता है। विनाश के लिए किसी बाह्य हेतु की आवश्यकता नहीं होती है। उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्कपरिभाषा में कहा है"नश्वरमेव तदवस्तुं स्वहेतोरूपजातमङ्गतिकर्तव्यम्, तरमादुत्पन्नमात्रमेव विनश्यति उत्पतिक्षण एव सत्वात्।" बौद्ध दर्शन के अनुसार जो जो सत् रूप है, वह एकान्त रूप से क्षणिक है। कोई भी सत् पदार्थ क्षणिकता की सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकता-"सर्वं क्षणिक सत्वात्, यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम-यथा घटः"। सब अस्तित्वान् पदार्थ क्षणिक है। अक्षणिक नित्य पदार्थ की कल्पना शशश्रुगवत् निरर्थक है। नित्य पदार्थ क्रम अथवा युगपत दोनों ही प्रकार से अर्थक्रिया नहीं कर सकता। जिसमें अर्थक्रिया नहीं होती है, वह सत् रूप भी नहीं हो सकता। सत् वही है, जो अर्थक्रिया करे। न्यायबिन्दु में व्याख्या करते हुए कहा है कि . "अर्थक्रिया सामर्थ्यलक्षण त्वाद्धस्तुनः"। संक्षेप में बौद्ध दर्शन के अनुसार क्षणिक पदार्थ ही अर्थक्रिया करने में समर्थ है। अतः एकमात्र क्षणिक पदार्थ ही सत् रूप है। सांख्य दर्शन चेतन तत्त्व रूप सत् पदार्थ को कूटस्थ नित्य एवं प्रकृति रूप सत् को परिणामी नित्य मानता है। नैयायिक-वैशेषिक दर्शन अनेक पदार्थों में से आत्मा, परमाणु, काल आदि सत् तत्त्वों को कूटस्थ नित्य मानता है तथा घट, पट आदि कुछ पदार्थों को मात्र उत्पाद एवं व्यययुक्त ही मानता है, नित्य रूप नहीं मानता है। जैन दर्शन के अनुसार सत् वस्तु नित्यानित्यात्मक उभयरूप है। वस्तु केवल कूटस्थ नित्य भी नहीं है और केवल निरन्वयविनाशी भी नहीं है। सांख्य दर्शन की तरह उसका एक तत्त्व सर्वथा नित्य एवं घट, पट आदि कुछ अनित्य है, ऐसा भी नहीं है। उनके अनुसार जड़, चेतन, मूर्त-अमूर्त, सूक्ष्म और स्थूल सभी सत् पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है। सम्पूर्ण वस्तु जगत् त्रयात्मक है। वाचक उमास्वाति ने कहा भी है कि उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्। अद्वैत वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक कहकर उसके अस्तित्व को ही नकार दिया। बौद्धों ने पर्याय को पारमार्थिक मानकर द्रव्य को काल्पनिक मान लिया। लेकिन जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों पारमार्थिक हैं। हमारा ज्ञान जब संश्लेषणात्मक होता है तब द्रव्य उपस्थित रहता है और पर्याय गौण हो जाता है और जब ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है तब पर्याय प्रधान एवं द्रव्य गौण हो जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने इस तथ्य को अभिव्यक्त करते हुए कहा है अपययं वस्तु समस्यमा मंद्रव्यमेतच्य विविच्यमानं।' जैन दर्शन में उपाध्याय यशोविजय के अनुसार वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक अर्थात् सागान्य-विशेषात्मक है। सामान्य एवं विशेष का परस्पर अविनाभाव है। वे एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पर्याय रहित द्रव्य एवं द्रव्य रहित पर्याय सत्य नहीं है द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यविवर्जिताः। कव कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा।। 519 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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