________________ उपाध्याय यशोविजय के दर्शन में अन्य दर्शनों की अवधारणा वाचक यशोविजय एक ऐसे उपाध्याय हुए हैं, जिन्होंने जैन दर्शन की भव्यता, दिव्यता के साथ अन्य भारतीय दर्शनों के बीच एक सेतु का कार्य किया है। वे एक ऐसे उदारवादी दार्शनिक उपाध्याय माने जाते हैं, जिनका किसी से वैर-विरोध या राग-आसक्ति नहीं है। इसीलिए उनकी दार्शनिक कृतियों में अन्य दर्शनिक सिद्धान्तों का उल्लेख देखा जा सकता है। यहाँ विभिन्न दर्शनों के सिद्धान्तों का उल्लेख है, जिसका प्रस्तुतीकरण किसी-न-किसी रूप में उपाध्यायजी के दर्शन में दृष्टिगोचर होता देखा जाता है। सत् के सन्दर्भ में __ विश्व का वैविध्य दृष्टिगोचर है। जगत् के विस्तार को देखकर उसके मूल स्तोत्र की जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। विश्व का विस्तार एवं मूल सत् रूप है अथवा असत् रूप है। यह जिज्ञासा भी दार्शनिकों के चिन्ता का विषय रही है। एक समान दृष्टिगोचर होने वाले जगत् के बारे में चिन्ताओं में विचार भेद रहा है। - सत् दर्शन जगत् का एक मूलभूत तत्त्व है। सत्वाद दार्शनिक जगत् का पुरातन प्रमेयतत्त्व रहा है। . सत् शब्द का प्रयोग प्रशस्त कार्य के लिए माना गया है। सद्भाव में साधुवाद में सत् शब्द का प्रयोग प्रचलित हुआ है। यज्ञ में, तप में और दान में सत् की स्थिति रही हुई है। यज्ञ, तप और दान , के लिए ही जो कार्य किया जाता है, वह सत्संज्ञा से संबोधित रहता है। इसलिए सत् का स्थान इसमें भी है और परलोक में भी है। श्रद्धा से युक्त कार्य सत् कहलाता है। वह सत् तप भी हो, जप भी हो, दान भी हो, चाहे स्वाध्याय भी हो-ये सभी पावन परम्परा के पथिक हैं। इस प्रकार सत् शब्द का उपयोग श्रीमद भगवद् गीता में किया गया है। सत् विषयक उपाध्याय यशोविजय का गहनतम मन्तव्य एवं चिन्तन, मनन एवं मंथन है, जो उमास्वाति के मन्तव्य का ही अनुकरण है। उपाध्याय यशोविजय उमास्वातिजी के अनुयायी होते हुए अन्य दार्शनिकों में जगत् सम्बन्धी सत् विरोधी सिद्धान्त का प्रत्युत्तर इस प्रकार देते हैं। शास्त्रचारों का श्रम इस जगत् को सत्वाद स्वरूप से ही निरूपण करने में रहा है। भारतीय दर्शन में सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मतभेद हैं। वेदान्त दर्शन सत् (ब्रह्म) को एक एवं कूटस्थ नित्य मानता है। संसार में नानात्व नहीं है। एकत्व ही यथार्थ है "सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन"।' ब्रह्म की ही वास्तविक सत्ता है। जगत् की सत्ता व्यावहारिक है। "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म स्वरूप ही है, ब्रह्म से भिन्न उसका कोई स्वतंत्र अस्तितव नहीं है, यह वेदान्त दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है। बौद्ध के अनुसार सत् को अर्थक्रियाकारक कहा गया है। उसमें वाङ्मय में सत् क्षणिक है, मात्र उत्पाद विनाशशील है, नित्यतायुक्त किसी पदार्थ या जगत् में अस्तित्व ही नहीं है। क्षणभंगवाद बौद्ध 518 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org