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________________ द्रव्यास्तिक सत् का कथन द्रव्य के आधार पर है, मातृकापदास्तिक का कथन द्रव्य के विभाग के आधार पर, उत्पन्नास्तिक का व्याकरण तात्कालिक वर्तमान पर्याय के आधार पर है तथा पर्यायास्तिक का कथन भूत एवं भावी पर्याय के आधार पर हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। द्रव्यास्तिक के अनुसार, 'असन्नाम नास्त्येव द्रव्यास्तिकस्य' असत् कुछ होता ही नहीं, वह सत् को ही स्वीकार करता है। सर्ववस्तु संल्लक्षण त्वादसत्पतिषेधेन सर्वसंग्रादेशो द्रव्यास्तिकम्। द्रव्यास्तिक सत् संग्रह नय के अभिप्राय वाला है। सर्वमेकं सदविशेषात्-इस सत् द्वारा सप्तभंगी का प्रथम भंग स्यात् अस्ति फलित होता है। मातृकापदास्तिक सत् के द्वारा द्रव्यों का विभाग होने से अस्तित्व एवं नास्तिक धर्म प्रकट होता . है। मातृकापद व्यवहारनयानुसारी है। द्रव्यास्तिक के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को सत् कह देने मात्र से वह व्यवहार उपयोगी नहीं हो सकता। व्यवहार विभाग के बिना नहीं हो सकता। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का द्रव्यत्व तुल्य होने पर भी वे परस्पर भिन्न स्वभाव वाले हैं। धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय नहीं हो सकता। यह मातृकापदास्तिक का कथन है। विभक्ति का निमित्त होने के कारण मातृकापद, व्यवहार . उपयोगी है “स्थूलकतिपय व्यवहस्योग्यविशेष प्रधान मातृका पदास्तिकम्।" उत्पन्नास्तिक सत् का सम्बन्ध मात्र वर्तमान काल से है। वह अतीत एवं अनागत को अस्वीकार करता है। अतः यह नास्ति रूप है। वर्तमान को स्वीकार करता है अतः अस्ति है। इससे सप्तभंगी का अवक्तव्य नाम का भंग फलित होता है। पर्यायनयानुगामी होने से इसकी दृष्टि भेदप्रधान है। सम्पूर्ण व्यवहार की कारणभूत वस्तु निरन्तर उत्पाद विनाशशील है। कुछ ही स्थितिशील नहीं है, वह उत्पन्नास्तिक का कथन है। इसकी मान्यता उत्पत्ति में ही है। "उत्पन्नास्तिकमुत्पननेऽस्तिमर्तिः" अनुत्पन्न स्थिति को यह स्वीकार ही नहीं करता। पर्यायास्तिक सत् विनाश को स्वीकार करता है। जो उत्पन्न हुए हैं, वे अवश्य विनश्वर स्वभाव वाला है। जितना उत्पाद हो, उतना ही विनाश। __ "विनोशेऽस्तिमतिपर्यायास्तिमुच्यते" कुछ मानते हैं कि पर्यायास्तिक उत्पद्यमान पर्याय को ही मानता है। "उत्पद्यमानाः पर्यायास्तिमुच्यते" इन दोनों मतों का समन्वय से फलित होता है कि पर्यायास्तिक नयभूत एवं अनागत को स्वीकार करता है तथा वर्तमान का निषेध करता है अतः वह अस्तिनास्ति रूप है। भूत भविष्य की अपेक्षा अस्ति, वर्तमान पर्याय की अपेक्षा नास्ति है। इससे भी अवक्तव्य भंग का कथन होता है, क्योंकि आस्ति-नास्ति को एक साथ नहीं कहा जा सकता है। संक्षेप में द्रव्यास्तिक से परम संग्रह का विषयभूत सत् द्रव्य और मातृकापदास्तिक से सत् द्रव्य के व्यवहाराश्रित धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य का विभाग उनमें भेद-प्रभेद अभिप्रेत है। प्रत्येक क्षण में नवनवोत्पन्न वस्तु का रूप उत्पन्नास्तिक और प्रत्येक क्षण में होने वाला विनाश या भेद पर्यायास्तिक से अभिप्रेत है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-इस त्रिपदी का समावेश चतुर्धा विभक्त सत् में हो जाता है। जैन दर्शन वस्तुवादी दर्शन है। वह जगत् की वास्तविक सत्ता स्वीकार करता है। सूक्ष्म एवं स्थूल दोनों ही जगत् का तात्विक अस्तित्व है। वस्तुवाद के अनुसार सत् को बाह्य, आभ्यन्तर, पारमार्थिक, व्यावहारिक, परिकल्पिक परतन्त्र, परिनिष्पन्न आदि भेदों में विभक्त नहीं किया जा सकता। सत्व सत्य ही है, उसमें विभाग नहीं होता। प्रमाण में अवभासित होने वाले सारे तत्त्व वास्तविक हैं। इन्द्रिय, मन 521 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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