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________________ भावना-संवेदना रूप समझना है। दूसरे शब्दों में कहें तो परमात्म स्वरूप का बोध मीमांसा, प्रतिपति एवं सात्मीकृत प्रवृत्ति रूप मुखदर्शन लेने का है। सम्यग्दर्शन एवं परमात्मा स्वरूप-ज्ञान की महिमा बताई है तो हम अनुभव कर सकते हैं कि चारित्र की महिमा का भी गुणगान किया ही होगा, वो ही भाव जग-जीवन यह दो पद में से मिल रहा है। जगत् को जीवनरूप बनाकर कौन आत्मा यहाँ अहिंसक और चारित्रधारी हो। आरंभ, समारंभ की हिंसा में व्यस्त जीव-जगत् के त्रस-स्थावर जीवों के प्राण का नाश करता है, उसी समय परमात्मा स्वयं जगत् के सभी जीवों के प्रति स्वयं सर्वथा अहिंसक बनकर, जगत् के सभी जीवों को ही अजर-अमर बनाने का अहिंसा-मार्ग दिखा रहे हैं। उनको सही भाव-जीवन दे रहे हैं अर्थात् जगत् को जिंदा रख रहे हैं। इसलिए जगजीवन पद से कहते हैं कि प्रभु स्वयं चारित्रजीवन से जगत् के जीवों का जीवनभूत है, स्वयं जगवाल हो पद का सूचन करता है। यही पद का तात्पर्य है कि जगत् के जीवों को व्हाला (प्यारा), वो ही हो सकता है, जो संयमी हो, त्यागी हो एवं निःस्वार्थपने पारमार्थिक उपकार करने वाला हो। जैसे परिवार में एक बड़ा इन्सान हो जो ज्यादा भोगी, स्वार्थी, असंयमी एवं कुटुम्बक के प्रति लापरवाह हो तो व्यक्ति परिवार को प्यारा नहीं लगता है, जो स्वयं मान-पान का इच्छुक हो, जिनकी वाणी, वर्तन पर संयम न हो वो दूसरों को पसंद नहीं आता है जबकि परमात्मा तो स्वयं महानिःस्पृही, महासंयमी, तपस्वी एवं विश्वोपकारी है, इसलिए जगत् के सभी जीवों के लिए व्हाला (प्यारा) है। इस तरह जगजीवन एवं जगवाल हो-इन दो पदों में उपाध्यायजी ने चारित्र-संयम एवं तप के महिमा का गुणगान किया है। उपाध्यायजी की रहस्यभरी लेखिनी का एक दूसरा उदाहरण भी बहुत ही रोचक एवं मार्मिक है। नेमिनाथ प्रभु के स्तवन में राजीमति ने प्रभु के पास शिकायत का वर्णन किया है। उनसे ही राजीमति तीसरी कड़ी में कहा है उतारी हूँ चितथी रे हां, मुक्ति धुतारी हेतु, मेरे बालमा। सिद्ध अनंते भोगवी रे हां, ते शं कवण संकेत, मेरे बालमा तोरणथी। इस पंक्ति में कहने का तात्पर्य यह है कि हे स्वामी! आप नवभव के स्नेह, प्रेम को भूलकर एक कलंकरूप कुरंग के निमित्त को पाकर मुझे छोड़ रहे हो। उसका कारण मैं समझती हूँ कि आप धुतारी ऐसी मुक्ति स्त्री के प्रेम के कारण मुझे आपके चित्त में से दूर की है किन्तु हे प्रभु! आपको पता नहीं है कि वो गणिका है? उनके भोक्ता अनंत सिद्धी हैं, वो गणिका आपको फंसा रही है। उस गणिका के साथ आपने क्या संकेत किया है। चौथी कड़ी में आगे राजुल कह रही है कि- . प्रीत करंता सोहली रे हां, निरवहतां जंझाल, मेरे बालमा।78 उनका अर्थ यह है कि "मेरे नव-नव भव के प्रेम की आपको कोई कदर न रही, आप मेरे अनमोल प्यार को न निभा पाये, वो कहाँ तक उचित है? कहते हैं कि प्रीत करना सरल है परन्तु निभाना दुष्कर है। आपने मेरे साथ प्रीत करके मुझे अपनाई थी पर वो मुक्ति के प्यार में पागल होते ही आपने मेरा त्याग कर दिया, मुझे तड़पाया इसलिए यहाँ यही बात सही प्रफ हो रही है कि प्रीत करना सरल है पर निभाना दुष्कर है। इस पंक्ति का सामान्य अर्थ यही है पर उनका रहस्यमय अर्थ कुछ भिन्न ही है, जैसे-राजीमती को जब सखिओं ने दूसरे वर ढूंढने को कहा था तब राजीमती ने उन सबको धुत्कार कर जवाब दिया था। वह परिस्थिति ही राजीमती को नेमिनाथ स्वामी के प्रति का अखूट प्यार की सूचक है। ऐसे अखण्ड, अनमोल, अमर प्रेम धन नारी आर्य देश की सन्नारियां! एक पति को जीवन समर्पित 505 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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