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________________ * गूढातिगूढ आध्यात्मिक तथ्यों की अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए रहस्यवादियों को विभिन्न प्रतीकों, रूपकों, उलटवासियों आदि विवेचन पद्धतियों की शरण लेनी पड़ती है। उपाध्यायजी की रहस्यात्मक अनुभूति स्व-संवेद्य है, वाणी द्वारा अवाच्य है। वैदिक ऋषियों से लेकर आज तक पूर्वी एवं पश्चिमी संतों, सिद्धों एवं रहस्यदर्शी साधकों, सभी ने परमतत्त्व और उसकी अनुभूति को एक स्वर से अकथ कहा है। वास्तव में रहस्यमय अनुभूतियाँ अनिर्वचनीय होती हैं। यह पूर्व और पाश्चात्त्य सभी साधकों ने स्वीकार किया है। वस्तुतः रहस्यानुभूति को यथातथ्य रूप में साधारण शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करना कठिन होता है। फिर भी रहस्यवादी उसे प्रतीकों, रूपकों, रहस्यात्मक पद्धतियों आदि के सहारे अभिव्यक्त करने की चेष्टा करते रहे हैं। _रहस्यात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति भी रहस्यात्मक ही होती है। उपाध्याय यशोविजय ने भी अपनी रहस्यात्मक अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए अनेकविध प्रणालियाँ अपनाई हैं। गहराई से देखा जाए तो उपाध्यायजी की विवेचना पद्धति का विश्लेषण करना बहुत कठिन है, क्योंकि वह गूढ़ और गम्भीर है। वैसे ही रहस्यात्मक उक्तियाँ प्रायः जटिल, रहस्यमय और अस्पष्ट होती हैं, जिनका अर्थ जानने के लिए कठिन अभ्यास करना पड़ता है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि उपाध्यायजी के ग्रंथों में कहीं भी अटपटी बानी, उलटी चाल, उलटवासी या हरियाली शब्द का प्रयोग नहीं दिखाई देता, तथापि इनके पदों को पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इनके रहस्य अंकित 108 ग्रंथ रहस्यात्मक उक्ति के अन्तर्गत आते हैं। उपाध्यायजी ने रहस्य अंकित 108 ग्रंथ की रचना की है पर आज स्याद्वाद रहस्य, नय रहस्य, उपदेश रहस्य एवं भाषा रहस्य आदि उपलब्ध है। उपरोक्त ग्रंथों के अंतर्गत जो-जो श्लोक वाचक पदों, रहस्य से भरपूर हैं, उन सबको उपाध्यायजी ने व्यक्त करने का प्रयत्न किया है, जो निम्न है... युगभास्कर, महोपाध्याय यशोविजय ने स्वरचित वर्तमान चौबीसी में तीर्थंकर देवों की स्तवनावली : में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के स्तवन में दिखाया है जग जीवन जग वालहो, मरुदेवानो नंद लाल रे। मुख दीठे सुख उपजे, दर्शन अतिहि आनंद लाल रे।।76 वैसे तो उपरोक्त पंक्ति का सामान्य अर्थ यही होता है कि हे जगजीवन, जगत् का प्यारा, मरुदेवा नंदन, आपके मुख को देखकर सुख उत्पन्न होता है, दर्शन करने से आनन्द होता है, किन्तु यहाँ प्रश्न होता है कि प्रभु का मुख देखना एवं दर्शन करना-यह दोनों साथ-साथ एक ही क्रिया की दो उक्ति अर्थात् पुनरुक्ति वह मात्र एक ही गाथा में गौरव-लाघव के महान् विचारक न्यायविशारद कहिए क्योंकि सिर्फ यही जिज्ञासा पर चिंतन-मनन करते हैं तो इसका कोई गूढ़ अर्थ हो, इसमें रहस्य छिपा हुआ हो। ऐसा लगता है जैसे दर्शन अति आनन्द में दर्शन शब्द से सामान्य देखने की प्रक्रिया नहीं लेने की है पर सम्यग्दर्शन नाम का प्रथम मोक्षोपाय बताया हुआ है। भाव यह है कि हे प्रभु! आप द्वारा बताये हुए सम्यग्दर्शन को जो आत्मा स्पर्श करता है, उनका उस दर्शन में अतिशय आनंद की अनुभूति होती है। वैसे ही मुख दीठे में दीठे शब्द से मात्र देखना ऐसा अर्थ नहीं है किन्तु स्वरूपदर्शन ऐसा अर्थ लेना है। मुख वह प्रधान अंग है। इनके ग्रहण से समस्त अंगों का ग्रहण हो जाता है इसलिए हम कह सकते हैं कि परमात्मा का मुख अर्थात् परमात्मा का अथवा परमात्मा के मुख्य स्वरूप के दर्शन करते-करते सुख उत्पन्न होता है। यह दर्शन भी प्रथम श्रुतज्ञान रूप, उनके बाद चिंता अर्थात् मननरूप, बाद में 504 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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