________________ आध्यात्मिक पुरुष अथवा अध्यात्मवादी का लक्षण यह है कि अध्यात्म सम्बन्धी जो वस्तु तत्त्व है, उसका चिंतन-मनन करने वाले ही वास्तव में अध्यात्मवादी कहे जाते हैं। अन्य तो सभी केवल कोरी अध्यात्म की बकवास करते हैं और अध्यात्म का ढोल पीटकर आध्यात्मिक होने का दावा करते हैं। ऐसे लोकों को आनंदघन ने लबासी की संज्ञा से अभिहित किया है। जो वस्तुतत्त्व को यथातथ्य रूप में प्रकाशित करते हैं। वे आनन्दमय आत्मा के अध्यात्म में स्थायी रूप से स्थिर हो जाते हैं। वस्तुतः अध्यात्म का विषय ऐसा है कि राह चलता हर कोई व्यक्ति आत्मा-परमात्मा की दो-चार रटी-रटाई बातें कह देता है, लेकिन इतने से ही वह आध्यात्मिक या अध्यात्मवादी नहीं हो जाता। आनन्दघन ने इस स्तवन में अध्यात्म की सम्यक् मीमांसा कर अध्यात्मशास्त्र का नवनीत प्रस्तुत कर दिया है। इस प्रकार सन्त आनन्दघन की रचनाओं में भावनात्मक पक्ष के दाम्पत्यमूलक आध्यात्मिक प्रेम विरह-मिलन आदि का उल्लेख हुआ है और साधनात्मक पक्ष के रत्नत्रयी-भक्ति प्रेम योग की साधना तथा मुख्यतः जैनयोग की सहज साधना पाई जाती है। एकाध पद में सिद्धों और कबीर की हठयोग की साधना का भी उन पर किंचित् प्रभाव लक्षित होता है। वास्तव में उनकी रहस्यानुभूति में साधनात्मक और भावनात्मक दोनों प्रकार के रहस्यवादी का सम्मिश्रण है। दोनों ही प्रकारों में साधक अपने परम रहस्य को उपलब्ध करता है। . सन्त आनन्दघन के अध्यात्म रहस्यवाद का प्रभुत्व उनके समकालीन उपाध्याय यशोविजय पर भी पड़ा। उपाध्याय यशोविजय की समाधितन्त्र, अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् आदि रचनाएँ रहस्यवाद की कोटि में आती हैं, जिनमें आध्यात्मिक तत्त्वों की सुन्दर विवेचनाएँ हैं। इनके उपरान्त नय रहस्य, स्याद्वाद रहस्य, उपदेश रहस्य, भाषा रहस्य आदि ग्रंथों की रचना करके दार्शनिक रहस्यों को भी उद्घाटित किया है। आचार्य कुन्दकुन्द के भावपाहुड में भावात्मक अभिव्यक्ति की प्रमुखता है तो अपभ्रंश की रचना परमात्मा-प्रचार, सावध धम्म दोहा तथा पाहुड दोहा में योगात्मक रहस्यवाद का स्वर प्रबल है। किन्तु मध्ययुगीन जैन हिन्दी रहस्यवादी काव्य में साधनात्मक और भावनात्मक दोनों तत्त्व पाए जाते हैं। उसी प्रकार उपाध्याय यशोविजय एक ऐसे आध्यात्मिक सन्त हुए, जिन्होंने साधनात्मक, भावनात्मक, दर्शनात्मक, भाषात्मक आदि रहस्यों को उद्घाटित करके चार चाँद लगा दिये हैं एवं रहस्यवादियों में उनका अग्रिम एवं अविस्मरणीय स्थान प्राप्त है। यशोविजय की दृष्टि में रहस्यवाद का वैशिष्ट्य अध्यात्म अतिगूढ़ विषय है। दार्शनिक बुद्धि तथा वर्णनपरक भाषा उसे स्पष्ट करने में असमर्थ ही रहती है। उपाध्याय यशोविजय का रहस्यवादी दर्शन भी अध्यात्ममूलक है। उनका प्रधान लक्ष्य आत्मानुभव है और रहस्यदर्शी साधना के लिए यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि उसकी अनुभूतियाँ उस परम सत्ता की अनुभूतियाँ हैं, जो अवाङ्मनस गोचर है, जिसके सम्बन्ध में नेति-नेति कहकर ही संतोष मानना पड़ा। रहस्यदर्शी साधक रहस्यमय परमतत्त्व से भावात्मक तादात्म्य स्थापित करने के लिए आकुल रहता है। अन्ततः उसे रहस्समय तत्त्व की ऐसी गहरी अनुभूतियां होती हैं, जिनका शब्दों में वर्णन करना सम्भव नहीं। भाषा उन अनुभूतियों को अपनी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करने में असमर्थ रहती है। अतः ऐसे 503 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org