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________________ * उठ गये हैं, ये साधु-दर्शन, ज्ञान-चारित्र रूप आत्मगुणों की साधना में रत रहने के कारण आत्मरामी कहे जाते हैं। सम्पूर्ण भौतिक सुखों को तिलांजली देकर अनासक्त भाव से मुख्यतः आत्म-गुणों की साधना में ही तल्लीन रहने वाले आत्मारामी साधु सभी कामनाओं से रहित और निःस्पृह होते हैं। मुनि और इन्द्रियरामी संसारी जीव में यही मूलभूत अन्तर है। अब प्रश्न यह है कि अध्यात्म की कसोटी क्या है? इसका भी सुन्दर चित्रण आनन्दघन ने किया है निज स्वरूप जे किरिया साधै, तेन अध्यात्म लहिए रे। जे किरिया करी चउगति साधै तेन अध्यात्म कहिए रे।।। साधक स्व-स्वरूप के अनुरूप आचार की जो साधना किया करता है, उसे ही अध्यात्म की संज्ञा दी जा सकती है। इसके विपरीत निज स्वरूप से हटकर पर-रूप की जो क्रिया करता है और परिणामतः रूप भव-भ्रमण होता है, ऐसी क्रिया को अध्यात्म नहीं कहा जा सकता। इसी सन्दर्भ में अध्यात्म के विविध रूपों की विवेचना करते हुए उनका कथन है नाम अध्यात्म ठवण अध्यात्म द्रव्य अध्यात्म छंडो रे। भाव अध्यात्म निज गुण साधै तो तेह शुं रढ मंडो रे / / " अर्थात् अध्यात्म चार प्रकार का है-1. नाम अध्यात्म, 2. स्थापना अध्यात्म, 3. द्रव्य अध्यात्म और 4. भाव अध्यात्म। आनन्दघन ने स्पष्टतः इनमें से प्रथम तीन को छोड़ने और भाव अध्यात्म को अपनाने पर बल दिया है। भाव अध्यात्म से अभिप्राय है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप आत्मिक गुणों की साधना। वस्तुतः इसमें अध्यात्म का सांगोपांग विश्लेषण और देय-उपादेय का विवेक प्रस्तुत किया है। ... उपाध्याय यशोविजय के अनुसार अध्यात्म का लक्षण इस प्रकार है-'आत्मानमधिकृत्य प्रवर्त ते इत्यध्यात्मम् 173 अर्थात् जो आत्मा के स्वरूप को लेकर प्रवृत्त हो, वह अध्यात्म है। ऐसे भाव अध्यात्म को ग्रहण करने पर ही आत्मोपलब्धि सम्भव है। भाव अध्यात्म की क्रिया मोक्षमार्ग की कारणभूत है। आनन्दघन ने शब्द और अर्थ की दृष्टि से भी अध्यात्म का विश्लेषण किया है शब्द अध्यात्म अर्थ सुणीने, निर्विकल्प आदरजो रे। शब्द अध्यात्म भजना जाणी, हान-ग्रहण मति धरजो रे।। उनके अनुसार निर्विकल्प शब्द अध्यात्म ही उपादेय है। निर्विकल्प भाव अध्यात्म को भी अंध श्रद्धापूर्वक या बिना समझे नहीं, अपितु गुरुगम से अर्थ समझकर ग्रहण करने का निर्देश किया है। भाव अध्यात्म निर्विकल्प दशा प्राप्त करने के लिए ही है। शब्द अध्यात्म में तो सत्यता हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती। उक्त पंक्तियों से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि केवल अध्यात्म शब्द में ही आध्यात्मिकता नहीं है, प्रत्युत् वह आध्यात्मिकता भाव में ही निहित है। अध्यात्म का सम्बन्ध भावना से अर्थात् आत्मा से होता है। इससे आनन्दघन के भावनामूलक आध्यात्मिक रहस्यवाद की पुष्टि होती है। आनंदघन इतने से ही सन्तुष्ट नहीं रह जाते हैं बल्कि अध्यात्म के निचोड़ रूप में वे आध्यात्मिक पुरुष के लक्षण का भी संकेत करते हैं। वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं ___ अध्यात्मी जे वस्तु विचारी बीजा जाण लवासी रे। वस्तुगते जे वस्तु प्रकाशे, ते आनन्दघन मत संगी रे।। 502 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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