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________________ समन्वय किया। कबीर के पश्चात् इस परम्परा में दादू, नानक, धर्मदास, पलटू, रैदास, सुन्दरदास आदि अनेक सन्त कवि हुए हैं। इन सभी सन्तों में न्यूनाधिक रूप में रहस्यवादी विचारधारा पाई जाती है। यद्यपि कबीर निर्गुणधारा के प्रवर्तक हैं तथापि साधारणजन को आकर्षित करने हेतु उन्होंने भक्तितत्त्व को भी महत्त्वपूर्ण माना है और अपने इष्टदेव को राम की संज्ञा से अभिहित किया है। कबीर के राम दशरथ के पुत्र न होकर 'जो या देहि रहित है, सो है रचिता राम 120 थे। दूसरी ओर कबीर ने नाथपन्थ के हठयोग को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। इनकी रचनाओं में चक्षु, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, सुरति, निरति, कुण्डलिनी, सहज, शून्य, अनहतनाद, बहमरन्द, गगनमहल आदि हठयोगी साधना के शब्द स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं। कबीर ने इनका प्रयोग अधिकांशतः उलटबासी शैली में किया है। शून्य पद का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि उसमें से अमृत झरता है और सुषुम्ना उसका रस पीती है। अवधू गगन मंडल धर कीजै। अमृत झरै सदा सुख उपजे बंकनालि रस पीवै।।। सूर्य और चन्द्रनाड़ी के एक होने पर घट में ही परमतत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है। यह विचार भी उन्होंने अभिव्यक्त किया है। अनहदनाद की चर्चा भी कबीर ने अनेकों पदों में की है, जैसे अनहद बाजै नीझर झरै उपजै ब्रह्म गियान। अविगति अंतरि प्रगटै लोग प्रेम धियान।। - उन्मति समाधि अवस्था में कबीर का मन रहस्यपूर्ण प्रकाश देखता है। उनका कथन है ___ मन लागा उनमन सौ गगन पहुंचा जाइ। देख्या चंद बिहूंणा चांदिणां तहां अतरव निरंजन राह / / 14 कबीर की उलटबासियों में भी साधनात्मक रहस्यवाद भरा हुआ है। उनकी यह उलटबासी अतिप्रसिद्ध है समंदर लागि आगि नदियां जल कोइला भई। देखि कबीरा जाणी, मेछी रुषां चढि गई।। उन्होंने हठयोग के विभिन्न तत्त्वों का वर्णन भी अटपटी बानी में पहेली के रूप में किया है ___ आकसे मुखि औंदा कूआ पाताले पणिआरी। ताका पानी को हंसा पीवे बिरला आदि बिचारी।।26 यह तो हुई कबीर के साधनात्मक अथवा यौगिक रहस्यवाद की विवेचना, किन्तु इसके साथ ही उनकी रचनाओं में भावनात्मक रहस्यवाद की भी सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। भावनात्मक रहस्यवाद के विरह की व्याकुलता और उसकी गहन अनुभूति में कबीर का मधुर भाव परिलक्षित होता है। कबीर के रहस्यवाद की विशिष्टता तो यह है कि उन्होंने निर्गुण के साथ प्रेम किया है और यह प्रेमतत्त्व उन्हें सूफी सन्तों से मिला है। इसीलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में इस प्रेमतत्त्व को विविध रूपों में व्यक्त किया है। कहीं तो उन्होंने इस प्रेम का चित्रण माता-पुत्र के रूप में किया है तो कहीं प्रियतम के रूप में। प्रियतम राम के साथ कबीर की अनन्य प्रीति निम्नांकित रूप में द्रष्टव्य है 494 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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