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________________ सूफी परम्परा में कुतबन, मंझन, जायसी, उस्मान, सेखनबी, कासिमशाह, नूर, मुहम्मद आदि सन्त हो चुके हैं। कुस्तबन की मृगावती रचना में रहस्यवाद की झलक पायी जाती है। उपर्युक्त सभी सूफी सन्तों में जायसी का रहस्यवाद सर्वश्रेष्ठ एवं सुप्रसिद्ध है। जायसी ने अपने प्रबन्धकाव्य 'पद्मावत' की रचना मसनवी पद्धति के आधार पर की है। उसमें जायसी के कोमल हृदय तथा आध्यात्मिक गूढ़ता के दर्शन होते हैं। इस कथा में कवि का तात्विक उद्देश्य रत्नसेन रूपी आत्मा का पद्मावती रूपी ईश्वर को प्राप्त करना है। जायसी की रचना में अद्वैत तत्त्व पर आधारित रहस्यवाद की झलक भी मिलती है। सूफी साधना विरहप्रधान है। परम प्रियतम से मिलन की व्याकुलता में अग्नि, पवन और समग्र सृष्टि को प्रियतम के विरह से व्याकुल प्रदर्शित किया है विरह की आगि सूर जरि कांपा, रातिउ दिवस करै ओहि तापा।" इसी तरह जायसी ने विरह-व्यथा का सुन्दर चित्रण अन्यत्र भी किया है। इस प्रकार जायसी के रहस्यवाद का मुख्य रूप उनके द्वारा प्रतिपादित प्रेम की ईश्वरोन्मुखता है। प्रेम का सर्वोत्कृष्ट विकास वियोग में होता है। निम्नोक्त पद में विरह की जो तल्लीनता दिखाई गई है, वह दर्शनीय है __हाड भा. सब किंगरी, नसै भई सब तांति। रोवं रोवं तें धुनि उठे, कहौं विधा केहि भांति।। जायसी के अनुसार ऐसे तीव्र विरह को उद्भूत करने वाला प्रेम पंथ अत्यन्त कठिन है।" प्रेममार्ग की विविध आस्थाओं का वर्णन पद्मावत में सुन्दर ढंग से हुआ है। सृष्टि का कण-कण उसी अव्यक्त ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम से व्याप्त है। वास्तव में जायसी का यह रहस्यवाद विशुद्ध भावनात्मक रहस्यवाद की कोटि में आता है। किन्तु जायसी पर नाथ पन्थी योगियों की अन्तर्मुखी साधना का भी कुछ प्रभाव पड़ा था, इसलिए उनमें इस प्रकार का साधनात्मक रहस्यवाद भी पाया जाता है। उनके साधनात्मक रहस्यवाद का उदाहरण इस पद में देखा जा सकता है नवौ खंड नव पौरी, औ तहं वज्र केवार। चारि बसेरे सौ चढे, सत सौ उतरे पार।। नव पौरो पर दसवं कुवारा, तेहिं पर बाज राज थरिआरा।। इसी तरह जायसी ने हठयोग की अन्तःसाधना का पूरा चित्रण भी किया है। फिर भी इतना तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि जायसी के हृदय की मूल आत्मा भावना है, साधना नहीं। इसलिए उनका रहस्यवाद मूलतः भावनात्मक ही कहा जाएगा। सन्त कवियों में रहस्यवाद सिद्धों द्वारा प्रवर्तित साधनात्मक रहस्यवाद को नाथपंथी-योगियों ने अपनाया, किन्त देश की धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों के कारण सिद्धों और नाथ पंथियों का सम्प्रदाय 'निर्गुणपन्थ' के रूप में परिवर्तित हुआ। सामान्यतः निर्गुणपन्थ के जन्मदाता कबीर माने जाते हैं। कबीर ने इस पन्थ में सिद्धों और नाथों की हठयोगी अन्तःसाधना के समुचे तत्त्वों को अपनाया। कबीर ने सिद्धों-नाथों की साधना का अनुसरण ही नहीं किया, प्रत्युत् अपने पन्थ में विद्वान् का अद्वैतवाद, नाथपंथियों का हठयोग, सूफियों का प्रेममार्ग, वैष्णवों की अहिंसा और शरणागति इत्यादि का सुन्दर 493 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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