SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ब) जैन न्याय का उद्भव एवं विकास न्याय की परिभाषा प्रमाण लक्षण आगमोत्तर युग में प्रमाण एवं परोक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण एवं परोक्ष प्रमाण न्यायशास्त्र के प्रमुख तीन अंग-प्रमेय, प्रमिति, प्रमाता चार निक्षेप का स्वरूप प्रमाणमीमांसा की विशिष्टताएँ 252-320 पंचम अध्याय अनेकान्तवाद एवं नय अनेकान्तवाद का अर्थ जैन दर्शन का आधार अनेकान्तवाद अनेकान्तवाद का स्वरूप अनेकान्तवाद का महत्त्व नयवाद सप्तनयों का स्वरूप अनेकान्त और नयदृष्टि का महत्त्व षष्ठ अध्याय 321-414 कर्ममीमांसा एवं योग (अ) कर्मस्वरूप एवं प्रकृति कर्म की परिभाषा कर्म का स्वरूप कर्म की पौद्गलिकता कर्मबन्ध की प्रक्रिया कर्मों के भेद-प्रभेद कर्मों का स्वभाव रूपी का अरूपी पर उपघात कर्म और पुनर्जन्म कर्म और जीव का अनादि सम्बन्ध कर्म के विपाक सर्वथा कर्मक्षय कैसे? गुणस्थानक में कर्म का विचार (iv) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy