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________________ इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलिजन में रहस्यवाद की विशिष्टता इस रूप में बताई गई है कि आत्मा अपनी आंतरिक उड़ान में व्यक्त और दृश्य का सम्बन्ध अव्यक्त और अदृश्य सत्ता के साथ जोड़ना चाहती है, जो रहस्यवाद की सर्वसम्मत विशेषता है। ऐसी चेतना को विलियम जेम्स बौद्धिक चेतना से पृथक् करते हुए कहते हैं- “यह रहस्यात्मक चेतना एक नितान्त नवीन प्रकार की चेतना है और हम इसे साधारण बौद्धिक चेतना से कुछ पृथक् ठहरा सकते हैं। मात्र इतना ही नहीं, जेम्स इसके लिए Sensory Intellectual Consciousness जैसे शब्द का प्रयोग भी करते हैं। उन्होंने इसे मस्तिष्क सम्बन्धी बौद्धिक चेतना जैसा विचित्र नाम भी दिया हुआ है।" 2. संवेदन-वास्तव में रहस्यवाद में मात्र चेतना ही नहीं होती, संवेदन भी होता है। संवेदन के रूप में रहस्यवाद को परिभाषित करने वाले पाश्चात्त्य विद्वान् फलेइडरर का कथन है कि रहस्यवाद ईश्वर के साथ अपनी एकता का स्पष्ट संवेदन है, जिस कारण इसे हम इसके अतिरिक्त कुछ नहीं कह सकते कि अपने मूल रूप में यह केवल एक धार्मिक संवेदन मात्र है, परन्तु जिसके कारण यह धर्म के अन्तर्गत किसी विशिष्ट प्रवृत्ति का स्थान ग्रहण करता है, वह है ईश्वर में, ईश्वरत्व के अनुरूप अपने जीवन का पूर्ण तादात्म्य। इस प्रकार ऐसे समस्त साधनों एवं भागों में पृथक् रहकर जो हमारे लिए प्रायः माध्यमों का काम कर दिया करते हैं, वह एक पवित्र संवेदन के जीवन में प्रवेश भी कर जाता है तथा वहाँ पर उसके एकान्त अन्तर्वर्तितत्त्व में अपना कोई चिरस्थायी निवासस्थान बना लेना है।" आइन्स्टीन जैसा वैज्ञानिक भी ऐसा संवेदन अनुभव करने पर लिखता है, "सबसे सुन्दर वस्तु जिसे कि हम अनुभव कर सकते हैं, वह रहस्यवादी है और वह मूलतः भाव है।"45 प्रसिद्ध दार्शनिक बर्टन्ड रसेल भी रहस्यवाद को संवेदन के रूप में परिभाषित करता है। उनके अनुसार रहस्यवाद तत्त्वतः संवेदन की उस तीव्रता और गम्भीरता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, जो अपनी विश्वात्मक भावना के प्रति अनुभूत की जाती है। रसेल की इस परिभाषा से फलेइडरर के मत का समर्थन होता है। फलेइडरर * * जहाँ ईश्वर के अव्यवहित सान्निध्य की चर्चा करते हैं, वहीं रसेल महोदय ने उसी बात को मात्र आस्था शब्द के द्वारा अभिव्यक्त कर दिया है।" 3. अनुभूति के रूप में-अनुभूति के रूप में रहस्यवाद की व्याख्या करने वाले विलियम जेम्स के अनुसार, "रहस्यवाद उस मनोदशा को सूचित करता है, जिसमें अनुभूति अव्यवहित बन जाती है। तज्जन्य आनन्दातिरेक को किसी अन्य के प्रति सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता।" इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए अन्यत्र उन्होंने यह भी कहा है-"अपने हर्षातिरेक की असम्प्रेषणीयता ही रहस्यवादी समस्त दशाओं की एकमात्र व्याख्या ठहरायी जा सकती है।" इस प्रकार का हर्षातिरेक उस अनुभूति में प्रकट होता है, जिसमें न केवल हम किसी निरपेक्ष सत्ता के साथ एकरूप हो जाते हैं, प्रत्युत् वैसी एकरूपता का हमें आभार भी हो जाया करता है। __इवेलिन अण्डरहिल का कथन है कि "रहस्यवाद भगवत् सत्य के साथ एकता स्थापित करने की कला है। रहस्यवादी वह व्यक्ति है, जिसने न्यूनाधिक रूप में इस एकता को प्राप्त कर लिया है, अन्यथा जो उसकी प्राप्ति में विश्वास करता है और जिसने इस एकता सिद्धि को अपना चरम लक्ष्य बना लिया है। अण्डरहिल के अनुसार इस परिभाषा में व्यक्ति और ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है, साथ ही दोनों में एकता स्थापना की संभावना भी की गई है। लामा एनागोरिक गोविन्द, विलियम जेम्स के कथन का समर्थन करता है। जहाँ जेम्स हर्षातिरेक की चर्चा करता है, वहाँ लामा ऐसे अनुभव 482 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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