________________ भाषा की प्रकृति को नहीं जानते। अनेक दार्शनिक समस्याएँ केवल इसलिए बनी हुई हैं कि हम भाषा के तार्किक स्वरूप को सम्यक् रूप से नहीं समझ पाते हैं। यदि हम अपनी भाषा की तार्किक प्रक्रिया को समझ लें तो अनेक दार्शनिक समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जायेंगी। विट्गेन्स्टीन बलपूर्वक यह भी कहते हैं कि दार्शनिक समस्याएँ तभी उठती हैं जबकि भाषा अवकाश ग्रहण कर लेती है। समकालीन पाश्चात्त्य दर्शन में आज भाषा-विश्लेषण दार्शनिक चिन्तन की एक प्रमुख विद्या बना हुआ है। यद्यपि उपर्युक्त वर्गीकरण का यह अर्थ नहीं कि उन-उन युगों में दार्शनिक चिन्तन की अन्य विद्याएँ पूर्णतया अनुपस्थित हैं। ग्रीक और मध्ययुगीन पाश्चात्त्य दर्शन में भी ज्ञानमीमांसा के साथ-साथ भाषादर्शन सम्बन्धी प्रश्नों पर कुछ चर्चा अवश्य होती रही है। सुकरात, प्लेटो और अरस्तू ने भाषा संबंधी पर दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा की है। मात्र यही नहीं, उन्होंने अनेक दार्शनिक प्रत्ययों का अर्थ-विश्लेषण भी किया। उदाहरणार्थ जब सुकरात-न्याय क्या है? ज्ञान क्या है? शुभ क्या है? इन प्रश्नों को उपस्थित करता है तो उसका मूल उद्देश्य इन दार्शनिक प्रत्ययों के अर्थ का विश्लेषण करना ही है। इसी प्रकार प्लेटो जब कहता है-अनेक विशेष वस्तुओं का एक सामान्य नाम होता है तो हम मानते हैं कि उनमें नाम के अनुरूप एक आकार निहित रहता है। अरस्तू यह मानता है कि क्रिया का प्रयोग बिना कर्ता के नहीं होता। हम यह नहीं कहते-बैठता है, चलता है बल्कि कहते हैं-वह बैठता है, वह चलता है। इस भाषिक विशेषता से वह यह निष्कर्ष निकालता है कि कर्ता का स्वतंत्र अस्तित्व होता है, क्रिया का नहीं।। इसी प्रकार बर्कले यह मानता है कि सामान्य धारणा में विपरीत भाषा का मुख्य उद्देश्य केवल विचारों का सम्प्रेषण ही नहीं अपितु अन्य उद्देश्य भी हैं, जैसे-भावना को उभारना, किसी क्रिया के लिए प्रेरित करना या अवरुद्ध करना, मन में किसी प्रवृत्ति को उत्पन्न करना आदि। हमारे उपर्युक्त वर्गीकरण का अभिप्राय इतना ही है कि किस युग में दार्शनिक चिन्तन की कौन-सी विद्या प्रमुख रही है। भाषा का दार्शनिक विश्लेषण पहले भी होता रहा है, तब यह केवल एक साधन माना गया था। आज भाषा-विश्लेषण दर्शन का एक मात्र कार्य बन गया है। आज दर्शन मात्र वे भाषा विश्लेषण हैं। 43 यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि दर्शन के क्षेत्र में जब एक विद्या प्रमुख बन जाती है तब अन्य विद्याएँ मात्र उसका अनुसरण करती हैं और उनमें निष्कर्ष उसी प्रमुख विद्या के आधार पर निकाले जाते हैं। उदाहरण के लिए मध्ययुग में तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा धर्मशास्त्र का अनुसरण करती प्रतीत होती है तो समकालीन चिन्तन में तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारदर्शन सभी भाषा विश्लेषण पर आधारित हो गये हैं और भाषा विश्लेषण के आधार पर निकाले गये निष्कर्षों के द्वारा उनकी व्याख्या होने लगी है। साधारण भाषा दर्शन रसल, मूर, विडगेस्टाइन, आस्टिन साधारण भाषा दर्शन, विश्लेषी दर्शन और भाषायी दर्शन का प्रयोग कमोबेश के रूप में एक विशेष प्रकार के दर्शन के लिए किया जाता है, जो मूलतः भाषा-विश्लेषण है। साधारण भाषा दर्शन किसी सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित अर्थ में दार्शनिक सम्प्रदाय नहीं है। ए.फल्यु. के अनुसार किसी एक भाषिक दर्शन को पृथक् करना कठिन एवं भ्रामक है। इन दार्शनिकों में अनेक विषमताएँ हैं तथा जान-बूझकर सम्प्रदाय न बनने की प्रवृत्ति है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि साधारण भाषा दार्शनिकों में कुछ भी साम्य नहीं है। इन सभी में निश्चित रूप से कुछ सामान्य विशेषताएँ हैं, जो आगे देखेंगे। किन्तु विडग्स्टाइन के शब्दों में उन्हें 456 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org