________________ है। अतः ये अवधारणाएँ भी मूलतः अर्थविज्ञान Science of Meaning और भाषादर्शन से संबंधित हैं। पूज्यपादं माणिक्यनंदी, प्रभाचन्द्र एवं उपाध्याय यशोविजय ने क्रमशः तत्त्वार्थवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, भाषा-रहस्य आदि ग्रंथों में शब्द और अर्थ के सम्बन्ध के प्रश्न को लेकर काफी गम्भीरता से चर्चा की है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा-विश्लेषण की प्रवृत्ति, जो जैन आगमों में उपलब्ध है, आगे चलकर जैन न्याय के ग्रंथों में तो काफी विस्तरित हो गई है। पाश्चात्य चिन्तन में भाषा-दर्शन का विकास भाषा-दर्शन और भाषा-विश्लेषण वर्तमान युग में दर्शन की प्रमुख और महत्त्वपूर्ण विचार-प्रणाली है। यदि हम पाश्चात्त्य देशों में दर्शन के विकास का अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पश्चिम से प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक एवं समकालीन दर्शनधाराओं की अपनी-अपनी विशिष्ट प्रवृत्ति रही है। प्राचीनकाल में दर्शन का विवेच्य विषय तत्त्वमीमांसा रहा है। जीवन और जगत् के मूलभूत उपादानों की खोज ही प्राचीन ग्रीक दर्शन की मूलभूत प्रवृत्ति थी। उस युग में दार्शनिक चर्चा में मूलभूत प्रश्न थे-परमतत्त्व क्या है? कैसा है? इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई? जगत् के मूलभूत उपादान कौन-कौन से हैं? आदि-आदि। पाश्चात्त्य दर्शन के क्षेत्र में दूसरा मोड़ ईसाई धर्म की स्थापना के पश्चात् आया। इसका काल ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक है। इस युग में दर्शन धर्म के आधीन हो गया और उसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय ईश्वर और शास्त्र का प्रामाण्य सिद्ध करना हो गया। ईश्वर के स्वरूप और अस्तित्व को सिद्ध करना ही इस युग की मुख्य दार्शनिक प्रवृत्ति थी। इस युग में श्रद्धा प्रधान और तर्क गौण बन गया था। पश्चिमी दार्शनिक चिन्तन के क्षेत्र में तीसरा मोड़ देकार्त और स्पीनोजा से माना जा सकता है, जब दर्शन को धर्म की अधीनता से मुक्त कर वैज्ञानिक तर्क पद्धति पर अधिष्ठित किया गया। यद्यपि दार्शनिक भी मूलतः तत्त्वमीमांसा प्रधान ही रहे। इस युग में दर्शन का वास्तविक दिशा-परिवर्तन तो लोक और बर्कले के चिंतन से ही प्रारम्भ होता है। इन दार्शनिकों के सामने मूलभूत प्रश्न था कि परम तत्त्व आदि की चर्चा करने से पूर्व हम इस बात पर विचार करें कि हमारे ज्ञान की सामर्थ्य क्या है? हमारे जानने की प्रक्रिया क्या है? हम किसे जानते हैं अर्थात् हमारे ज्ञान का विषय क्या है? इस प्रकार इस युग में दार्शनिक विवेचन तत्त्वमीमांसा और ईश्वरमीमांसा से हटकर ज्ञानमीमांसा पर केन्द्रित हो गया। मानवीय ज्ञान के साधन, मानवीय ज्ञान का सीमाक्षेत्र और मानवीय ज्ञान के विषय की चर्चा ही प्रमुख बनी। यद्यपि यह दुर्भाग्यपूर्ण ही रहा कि इन सारी चर्चाओं की अन्तिम परिणति अज्ञेयवाद और सन्देहवाद के रूप में हुई। पाश्चात्त्य दर्शन के क्षेत्र में चौथा मोड़ वर्तमान बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रारम्भ होता है। इस युग के दर्शन की मुख्य प्रवृत्ति भाषा विश्लेषण है। इन दार्शनिकों ने यह माना कि दार्शनिक चिन्तन, विमर्श और विवेचन का आधार भाषा है। जब तक हम भाषा के स्वरूप और शब्दों के अर्थ का सम्यक् निर्धारण नहीं कर लेते, तब तक दार्शनिक विवेचनाएँ निरर्थक बनी रहती हैं। क्योंकि हम जो कुछ सोचते हैं, जो कुछ बोलते हैं और अपने विचारों को जिस रूप में अभिव्यक्त करते हैं अथवा दूसरों के विचारों को जिस रूप में समझते हैं, इन सबका आधार भाषा है। इसलिए सर्वप्रथम हमें भाषा के स्वरूप का तथा उससे होने वाले अर्थ बोध का विश्लेषण करना होगा। भाषा विश्लेषण के प्रमुख दार्शनिक विट्गेन्स्टीन का कथन है कि हमारे बहुत से दार्शनिक प्रश्न और तर्क वाक्य इसलिए खड़े होते हैं कि हम अपनी 455 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org