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________________ वस्तुतः महावीर और जमाली के मध्य जो यह विवाद चला, उसका मुख्य आधार भाषा-विश्लेषण है। महावीर की मान्यता यही थी कि चाहे व्यवहार के क्षेत्र में क्रियमान, दग्धमान, भिद्यमान आदि क्रियाविशेषणों का प्रयोग करते हो, किन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से ये भाषायी प्रयोग असंगत हैं। अंग्रेजी भाषा में जिसे हम Continue present कहते हैं और संस्कृत भाषा में जिसे वर्तमानकालिक कृदन्त के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं अथवा हिन्दी भाषा में-वह खा रहा है, जा रहा है, लिख रहा है आदि के रूप में जो क्रियापद प्रयोग करते हैं-वे वस्तुतः वर्तमान कालिक न होकर तीनों कालों में उस क्रिया का होना सूचित करते हैं। मैं लिख रहा हूँ-इस वाक्य का तात्पर्य है मैंने भूतकाल में कुछ लिखा, वर्तमान में लिखता हूँ और मेरी यह लिखने की क्रिया भविष्य में भी होगी। वस्तुतः महावीर ने उपर्युक्त व्याख्या में क्रिया के भूतकालिक पक्ष को अधिक महत्त्वपूर्ण माना और यह सिद्धान्त स्थापित किया कि क्रियमान को कृत कहा जा सकता है, जबकि जमाली ने उसके भविष्यकालिक पक्ष को अधिक महत्त्वपूर्ण माना और क्रियमान को अकृत कहा। महावीर ने जमाली की मान्यता-कि जब तक कोई क्रिया पूर्णतः समाप्त न हो जाये, तब तक उसे कृत नहीं कहना-मैंने यह दोष देखा कि क्रियमान क्रिया के पूर्व समयों में कुछ कार्य तो अवश्य हुआ है, अतः उसे अकृत कैसे कहा जा सकता है? जैसे यदि कोई व्यक्ति चल रहा है, तो कथन काल के पूर्व वह कुछ तो चल चुका है अथवा कोई वस्तु जल रही है तो कथन काल तक वह कुछ तो जल चुकी है। अतः उन्होंने माना कि वाच्यता के पूर्व में क्रिया के भूतकालिक पक्ष की दृष्टि से क्रियमान को कृत और दद्यमान को दग्ध कहा जा सकता है। व्यावहारिक भाषा में भी हम ऐसे प्रयोग करते हैं, जैसे यदि कोई व्यक्ति बोम्बे के लिए घर से रवाना हो गया है तो उसके सम्बन्ध में पूछने पर हम कहते हैं कि वह बोम्बे गया, चाहे वह अभी बोम्बे पहुंचा नहीं हो। उसी प्रकार पेण्ट या शर्ट में एक भाग के जलने पर हम यह कहते हैं कि मेरी पेण्ट * * या शर्ट जल गया। महावीर के उपासक ठंक नामक कुम्भकार ने भाषा के इस व्यावहारिक प्रयोग के आधार पर जमाली की मान्यता को असंगत बताया था। किसी समय महावीर की पुत्री एवं जमाली की सांसारिक पत्नी प्रियदर्शना अपने श्रमणी समुदाय के साथ ठंक कुम्भकार की कुम्भकारशाला में ठहरी हुई थी। ठंक कुम्भकार ने उसके साड़ी के पल्लू पर एक जलता हुआ अंगारा डाल दिया, फलतः उसकी साड़ी का एक कोना जल गया। यह देखकर उसने कहा-मेरी साड़ी जल गई। ठंक ने अवसर का लाभ उठाते हुए कहा-आपके सिद्धान्त के अनुसार जब तक कोई क्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक वह अकृत होती है-दग्धमान तो दग्ध नहीं अपितु अदग्ध है, अतः जब तक पूरी साड़ी जल नहीं जाती तब तक आपका यह वचन व्यवहार कि साड़ी जल गई, मिथ्या एवं आपके सिद्धान्त का विरोधी होगा। ठंक-कुम्भकार की यह युक्ति सफल रही और प्रियदर्शना को महावीर के सिद्धान्त की यथार्थता का बोध हो गया। 28 विभज्यवाद, समकालीन भाषा दर्शन का पूर्वरूप ___महावीर और बुद्ध के समय अनेक दार्शनिक विचारधाराएँ प्रचलित थीं। उस समय जैनों के अनुसार 180 क्रियावादी, 84 अक्रियावादी, 32 विनयवादी और 67 अज्ञानवादी-इस प्रकार 363 और बौद्धों के अनुसार 62 दार्शनिक सम्प्रदाय प्रचलित थे। बुद्ध और महावीर ने इस सबके दार्शनिक विरोधों में देखा और पाया कि ये सभी दार्शनिक मतवाद दार्शनिक जिज्ञासाओं के एकपक्षीय समाधानों 451 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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