________________ उस अर्थ का बोध हो जाता है। यही कारण है कि अनसीखी भाषा के शब्द हमें कोई अर्थबोध नहीं दे पाते हैं। इसीलिए जैन दार्शनिक मीमांसा दर्शन के शब्द में स्वतः अर्थबोध की सामर्थ्य का खण्डन करते हैं। अनेक प्रसंगों में वक्ता का आशय कुछ होता है और श्रोता उसे कुछ और समझ लेता है, अतः यह मानना होगा कि शब्द और अर्थ में वाचक-वाच्य सम्बन्ध होते हुए भी वह सम्बन्ध श्रोता या पाठक सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। अन्यथा दो व्यक्तियों के द्वारा एक ही पदावली का भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण करना कभी संभव नहीं होता। जैन दार्शनिकों के लिए भाषा-दर्शन का, भाषा-विश्लेषण का प्रश्न कितना महत्त्वपूर्ण रहा है, इस तथ्य का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि जैन धर्म में महावीर के जीवनकाल में ही प्रथम संघभेद भाषा-विश्लेषण को लेकर हुआ। इस प्रथम संघ-भेद के कर्ता भी अन्य कोई नहीं, स्वयं भगवान महावीर के भागिनेय एवं जामाता जमाली थे। विवाद का मूल विषय था-क्रयमान का क्या अर्थ है? उसे कृत कहा जा सकता है, या नहीं? महावीर की मान्यता थी कि क्रियमान को कृत कहा जा सकता है, जबकि जामाली क्रियमान को अकृत कहते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक में गौतम महावीर के सम्मुख यही प्रश्न उपस्थित करते हैं। हे भगवान! क्या चलमान को चलित, उदीर्यमान को उदीरित, वैद्यमान को वेदित, प्रहीणमान को प्रहीण, छीद्यमान को छिन्न, भिद्यमान को भिन्न, दह्यमान को दग्ध, प्रियमान को मृत, निर्जीयमान को निर्जीण कहा जा सकता है। ____ हाँ गौतम! जो चल रहा है उसे चला, जो उदीर्यमान है उसे उदीर्ण, जो वैद्यमान है उसे वैद्य, जो.. प्रहीणमान है उसे प्रहीण, जो छिद्यमान है उसे छिन्न, जो भिद्यमान है उसे भिन्न, जो दग्धमान है उसे दग्ध, जो प्रियमान है उसे मृत और जो निर्जीयमान है उसे निर्जीण कहा जा सकता है। इसके विपरीत जमाली की मान्यता यह थी कि कोई भी क्रिया जब तक पूर्ण नहीं हो जाती, तब तक उसे कृत नहीं कहा जा सकता। वे दूसरे शब्दों में जो चल रहा है उसे चला और जो जल रहा है उसे जला नहीं कहा जा सकता। जमाली के द्वारा इस मान्यता को स्वीकृति देने के पीछे भी एक घटना रही हुई है किसी समय जमाली अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ ग्रामानुगाम विचरण करते हुए श्रीवस्ती नंगर में आये। उस समय रुक्ष एवं प्रांत आहार के कारण उनका शरीर रोगग्रस्त हो गया और उन्हें असह्य पीड़ा होने लगी। उन्होंने अपने शिष्यों को आदेश दिया है कि मेरे लिए संस्तारक (बिछौना) बिछा दो। दो शिष्य उनके आदेश को मान्य करके बिस्तर बिछाने लगे। इधर प्रबल वेदना से पीड़ित हो ये बार-बार पूछने लगे कि क्या बिस्तर बिछा दिया गया है? शिष्यों का उत्तर था-बिस्तर अभी बिछा नहीं है, बिछाया जा रहा है। बस इसी घटना ने जमाली को महावीर के क्रियमाण कृत में सिद्धान्त का विरोधी बना दिया। उनके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान महावीर जो इस प्रकार आख्यात करते हैं, प्ररूपित करते हैं कि चलमान चलित, उदीयमान उदीत, आदि-वह मिथ्या है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि जब तक शय्यासंस्तारक बिछाया जा रहा है, तब तक वह बिछाया गया नहीं है अर्थात् जो क्रियमान है, वह अकृत है। अतः चलमान चलित नहीं, अपितु अचलित है, उदीर्यमान उदीरित नहीं अपितु अनुदिरित है, वैद्यमान वेदित नहीं अपितु अवेदित है, प्रहीणमान प्रहीण नहीं अपितु अप्रहीण है, छिद्यमान छिन्न नहीं अपितु अछिन्न है, क्रियमान कृत नहीं अपितु अकृत है, निर्जीर्णमान निर्जीण नहीं अपितु आनिर्जीण है। 450 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org