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________________ वस्तुतः यहाँ दार्शनिक दृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि क्रोध, अहंकार, कपटवृत्ति, लोभ, राग, द्वेष और हास्य और भय के वशीभूत होकर बोली गई भाषा को असत्य क्यों कहा गया? यह क्रोध, भय आदि की स्थिति में बोला गया वचन अधिकांश रूप में तथ्य का विसंवादी भी होता है लेकिन कभी-कभी वह सत्य भी होता है, फिर भी जैन आचार्यों ने इसे सत्य की कोटि में स्वीकार नहीं किया है। वे उसे असत्य ही मानते हैं। हमारी दृष्टि में इसका आधार यह है कि दृष्ट आशय के द्वारा बोली गई भाषा चाहे वह तथ्य की संचारी क्यों न हो, सत्य नहीं मानी जा सकती। वस्तुतः उपर्युक्त असत्य भाषा के जो दस प्रकार बताये गये हैं, वे भाषा की सत्यता या असत्यता का प्रतिपादन करने के स्थान पर उन स्थितियों को बताते हैं, उनके कारण असत्य भाषण होता है। ये वे स्थितियाँ हैं, जो असत्य को जन्म देती हैं। जब भी व्यक्ति असत्य सम्भाषण करता है, इनमें से किसी एक कारण के आधार पर करता है। उपर्युक्त वर्गीकरण में दो प्रकार ऐसे हैं, जिन पर और अधिक विचार अपेक्षित है। इनमें आख्यायिका भाषा को असत्य कहा गया है। आख्यायिका का मतलब क्या होता है। जब व्यक्ति किसी आख्यान या कथा का चित्रण करता है तो उसमें अनेक असम्भवित कल्पनाओं को भी स्थान दे देता है और इस प्रकार का कथन प्रामाणिकता को खो देता है। उपन्यास आदि कथा-साहित्य में इस प्रकार की प्रवृत्ति पाई जाती है। इसी प्रकार उपघात निःसृत भाषा भी असत्य कही गई है, क्योंकि इसमें दूसरों पर मिथ्यादोषारोपण की प्रवृत्ति कार्य करती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनों ने भाषा की सत्यता-असत्यता का विचार मात्र तथ्यगत सम्पादिता के आधार पर ही नहीं किया अपितु उन मूलभूत कारणों के आधार पर भी किया, जिसमें कथन की प्रामाणिकता, सत्यता खण्डित हो जाती है। ___3. सत्यमृषा कथन-वे कथन जिनका अर्थ उभय कोटिक हो सकता है, सत्य मृषा कथन है। अश्वत्थामा मारा गया, यह महाभारत का प्रसिद्ध कथन सत्यमृषा भाषा का उदाहरण है। वक्ता और श्रोता इसके भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। अतः जो कथन दोहरा अर्थ रखते हैं, वे सत्यमृषा भाषा के उदाहरण हैं। इसी प्रकार अनिश्चयात्मक कथन भी इस कोटि में आते हैं। संभावनात्मक कथन को कुछ जैनाचार्यों ने सत्य का एक भेद माना है किन्तु सही में तो उसे सत्यमृषा भाषा की कोटि में परिगणित करना चाहिए। उपाध्याय यशोविजय ने भाषा रहस्य में बताया है कि अंसे जीसे अत्थो विवरीओ होइ तह तहारुवो। सच्चामोसा; मीसा, सुअंमि परिभासिआ दसहा।।56 / / . उत्पन्न विगय मिसग जीवमजीवे अ जीवअज्जीवे / / तहणेतमीसिया खलु परित अध्या य अद्धधा।।57।।" यही दस भेद का उल्लेख प्रज्ञापना सूत्र100 में भी किया गया है। जिस भाषा का विषय एक अंश में विपरीत हो और अन्य अंश में तथारूप अविपरीत हो, वह भाषा सत्यमृषा है। वह आगम में मिश्रभाषा रूप से परिभाषित है, जिसके दस भेद हैं-1. उत्पन्न मिश्र, 2. विगत मिश्र, 3. उत्पन्न विगत मिश्र, 4. जीव मिश्रित अजीव मिश्रित, 5. जीवाजीव मिश्रित, 7. अनंत मिश्रित, 8. प्रत्येक मिश्रित, 9. अद्धा मिश्रित, 10. अद्धाधा मिश्रित-ये दस भेद मिश्र भाषा के हैं, जैसे 444 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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