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________________ यहाँ यह शंका कि 'ग्रहणे' पद तो प्रथमा विभक्ति एकवचन, सप्तमी विभक्ति एकवचन, संबोधन एकवचन : द्वितीया विभक्ति बहुवचन में भी आता है। तब अन्य विभक्तियों को छोड़कर और अपनी मनपसंद विभक्ति को ही लेकर उसके अर्थ का व्याख्यान करना कैसे संगत होगा? ठीक नहीं है, क्योंकि श्रीमद् हरिभद्रसूरिजी महाराज ने दशवैकालिक नियुक्ति के उपर्युक्त श्लोक की 'ग्रहणे च' इत्यादि रूप से ग्रहणक्रिया के आश्रय से, आलम्बन से ग्रहणद्रव्यभाषा, निसरणक्रिया का आश्रय करके निसरणद्रव्यभाषा तथा पराघात क्रिया का आलम्बन लेकर पराघातद्रव्यभाषा ऐसा निरूपण किया है। जैसे घट के आलम्बन वाला ज्ञान घटविषयक कहा जाता है, वैसे ग्रहणादि क्रिया के आलम्बन वाली ग्रहणादि द्रव्यभाषा को भी ग्रहणादि क्रिया-विषयक कहने में कोई विरोध नहीं है। जब सूरिपुरंदन श्री हरिभद्रसरि महाराज ने सप्तमी विभक्ति लेकर विषयत्व अर्थ बताए तो इसमें क्या दोष है? ऐसा उपाध्यायजी का कहना है-महाजनो येन गतः स पन्थाः। इत्यादि! यदि श्री हरिभद्रसूरिजी की व्याख्या छोड़कर चूर्णिकार की व्याख्या का आलम्बन लेकर यहाँ ग्रहणे इत्यादि पदों में साधुत्वअर्थक प्रथमा विभक्ति का आश्रयण करे तब भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि चूर्णिकार ने (द्रव्य) भाषा का त्रिविध है-ग्रहण, निसरण और पराघात, ऐसा स्पष्ट रूप से प्रथमा विभक्ति का ग्रहण करके व्याख्यान किया है। उपर्युक्त दोनों पक्ष सुसंगत हैं, क्योंकि वे दोषमुक्त हैं, आपेक्षिक हैं। उनके अर्थघटन में कोई बाधा नहीं है। संबोधन एकवचन तथा द्वितीय बहुवचन का अर्थ लेने में तो यहाँ स्पष्ट रूप से बाधा ही ह अतः उनका प्रतिपादन न करना ही उचित है। इस तरह द्वितीय गाथा में द्रव्यभाषा के तीन भेदों के स्वरूप का कथन उपाध्याय यशोविजय ने किया है। शंका-यहाँ शंका हो सकती है कि ग्रहण भाषा, निसरण भाषा और पराघात भाषा द्रव्यभाषा स्वरूप ही क्यों है? भावभाषा स्वरूप क्यों नहीं? इन तीन भाषा में भावभाषा का व्यवहार करने में क्या दोष है? इस शंका का निराकरण उपाध्याय यशोविजय द्वारा रचित भाषारहस्य ग्रंथ में गाथा-11 से करते हैंनिराकरण- पाहन्न दव्यस्सं य अप्पाहन्नं तदेव किरिआणं। भावस्स य आलंबिय ग्रहणाइसु द्रव्यववाएसो।। अर्थात् द्रव्य के प्राधान्य की विवक्षा और भाव तथा क्रिया की अप्रधानता की विवक्षा करके ग्रहणादि तीन भाषा में द्रव्यभाषा का व्यवहार होता है। ग्रहणादि द्रव्यभाषा में ग्रहणादि क्रिया विद्यमान है और भाषा के परिणामरूप भाषा भी विद्यमान है तब तो ग्रहण-निसरण-पराघात भाषा में भावभाषा का व्यवहार होना चाहिए। अतः ग्रहणादि भाषा को द्रव्यभाषा कहना ठीक नहीं है। यहाँ शंका करना उचित नहीं है। इसका कारण यह है कि वास्तव में सब चीजों में अनंत धर्म रहते हैं यानी सब चीजें अनंतधर्मात्मक होती हैं। अगर वस्तु में रहे हुए सब धर्म का व्यवहार कोई भी नहीं करता और वह शक्य भी नहीं है। कोई भी व्यक्ति देश-कालादि की अपेक्षा से और प्रयोजन के अनुसार वस्तु में रहे हुए अनंत धर्म में से किसी धर्म की मुख्यता और किसी धर्म की गौणता का आलम्बन लेकर व्यवहार करती है। लौकिक व्यवहार इस तरह ही चलता है। यहाँ भी ग्रहण आदि भाषा में विद्यमान ग्रहणादि क्रिया और भाषारूप परिणमन की विवक्षा किये बिना द्रव्य की विवक्षा करने से ग्रहणादि भाषा को द्रव्यभाषा कहा गया है। मतलब यह है कि ग्रहणादि भाषाद्रव्य में ग्रहणादि क्रिया की और भाषा परिणामस्वरूप भाव की गौणता और द्रव्यत्व की मुख्यता विवक्षित होने से ग्रहणादि भाषाद्रव्य को द्रव्यभाषा रूप में बताया गया है। प्रयोजन के अनुसार किसी 430 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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