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________________ उत्पादक स्थानों में प्रयत्न करके तत् विभाग के अनुसार पूर्वगृहीत भाषा द्रव्यों को पुरुष छोड़ता है, तब वे भाषाद्रव्य निसरण द्रव्यभाषा स्वरूप होते हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि जैनदर्शन के सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण लोक में भाषा वर्गणा यानी भाषा परिणमन प्रयोग द्रव्य चारों ओर फैले हुए हैं। फिर भी हम उनको नहीं देख सकते हैं, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं लेकिन विशेष शक्ति से भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त जीव इन भाषा-द्रव्यों को ग्रहण कर पाता है। भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त जीव भाषायोग्य द्रव्य को सदा ग्रहण नहीं करता है, किन्तु जब वह वचन उच्चारण का प्रयत्न करता है तब अपनी सम्पूर्ण काया से भाषा द्रव्य को ग्रहण करता है, जिसे ग्रहण द्रव्य भाषा कहते हैं। 2. निसरणं-जीव गृहीत भाषा द्रव्यों को कण्ठ, ओष्ठ आदि शब्दजनक स्थानों में विशेष प्रयत्न करके शब्दविशेष रूप से परिणत करके ग्रहण के अनन्तर समय में छोड़ता है, जो निसरण द्रव्य भाषा स्वरूप होते हैं। __ जैसे क, ख आदि शब्द का उत्पत्तिस्थान कण्ठ है तो प, फ आदि का उत्पत्तिस्थान ओष्ठ है। जब प शब्दोच्चारण का प्रसंग उपस्थित होता है तब जीव वाग्योग से परिणत होकर काययोग से भाषावर्गणा पुद्गल को ग्रहण करने के बाद प शब्दोपत्तिस्थान होठ में प्रयत्न करके पूर्वगृहीत भाषावर्गणा पुद्गल को प रूप में परिणत करके छोड़ता है। यह बात अनुभव सिद्ध है। हम कभी भी एक होठ को दूसरे होठ से छूए बिना प, फ, ब, भ, म शब्द का उच्चारण नहीं कर सकते हैं। ये निःसृष्ट भाषाद्रव्य यहाँ तद्व्यतिरिक्त निसरण द्रव्यभाषा पर से वाच्य हैं। 3. पराघातश्च-वक्ता विवक्षित शब्दरूप में परिणत करके जिन भाषाद्रव्यों को छोड़ता है, वे भाषा द्रव्य भाषा परिणमनयोग्य द्रव्यों को अपने समानरूप से वासित करते हैं, जैसे कि निःसृष्ट प शब्द अन्य भाषा योग्य द्रव्य को प शब्द के रूप में परिणत करता है। ये वासित भाषाद्रव्य यहाँ तद्व्यतिरिक्त पराघात द्रव्यभाषा शब्द से अभिप्रेत हैं। . भाषा के सम्बन्ध में जैनदर्शन की उपर्युक्त मान्यता सत्य प्रतीत होती है। आजकल वैज्ञानिकों ने भी भाषा शब्द को पुद्गलरूप स्वीकार किया है। प्रतिध्वनि, तीव्र शब्द से कान में बधिरता, पराघात आदि से शब्द में पुद्गलरूपता सिद्ध होती है। भाषा वर्गणा के पुद्गलों को शब्दरूप में परिणत करके छोड़ने के लिए सर्वप्रथम उनका ग्रहण करना आवश्यक है। अतः सर्वप्रथम द्रव्यभाषा के भेदरूप में ग्रहण द्रव्यभाषा का निरूपण संगत ही है। श्रोता को अर्थबोध कराने के लिए शब्दद्रव्यों का विवक्षित रूप में परिणमन करके त्याग करना भी आवश्यक है, जो ग्रहण के बाद होता है। अतः ग्रहण भाषाद्रव्य के बाद निसरण भाषाद्रव्य का उपन्यास समीचीन है। शब्द मुँह में से बाहर निकलने के बाद ही अन्य भाषा परिणमन योग्य द्रव्यों को वासित करता है। अतः निसरण द्रव्यभाषा के बाद पराघात द्रव्यभाषा का प्रतिपादन यथोचित है। आपने यहाँ भाषा के तीन भेद बताये हैं, वे निराधार हैं, अशास्त्रीय हैं, ऐसी शंका का निराकरण करने के लिए विवरणकार दशवैकालिक नियुक्ति या प्रामाणिक हवाला देते हैं, देखिए, द्रव्यभाषा के तीन भेद हैं-ग्रहण में, निसरण में और पराघात में। परम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामीजी के उपर्युक्त वचन से द्रव्यभाषा के तीन भेद सिद्ध होते हैं। उपर्युक्त शास्त्रपाठ में ग्रहण इत्यादि पदों में जो सातवीं विभक्ति है, वह विषय-विषयता अर्थ में है। अतः यह अर्थ प्राप्त होता है कि ग्रहण आदि क्रियाविषयक द्रव्यभाषाग्रहण आदि क्रिया संबंधी द्रव्यभाषा। 429 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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