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________________ . धर्म में मुख्यता और किसी धर्म में गौणता की विवक्षा करने में कोई दोष नहीं है। हाँ, दोष तब आता है, यदि ग्रहण आदि भाषा में ग्रहण आदि क्रिया और भाषापरिणामस्वरूप भाव का अपलाप किया जाए। मगर ऐसा अपलाप नहीं किया है। अतः द्रव्य की प्रधानता तथा क्रिया और भाव की अप्रधानता की विवक्षा करके ग्रहणादि तीनों में द्रव्यभाषा का व्यवहार करना निर्दोष है। यह हमारी मनमानी कल्पना नहीं है, किन्तु शास्त्रविशारद श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने दशवैकालिक सूत्रनियुक्ति की टीका बनाई है, इसका पाठ भी इसके लिए साक्षीभूत है। दशवैकालिक नियुक्ति के वृत्ति पाठ का अर्थ यह है कि ग्रहणादि तीन प्रकार की क्रिया द्रव्यभाषा है, क्योंकि ग्रहणादि में द्रव्ययोग में प्राधान्य की विवक्षा है। अतः हरिभद्रसूरि के वचन से भी यही सिद्ध होता है कि ग्रहणादि में द्रव्य की प्रधानता विवक्षित है।" ग्रहणादि भाषा में द्रव्य के प्राधान्य की विवक्षा न की जाए और स्वरूप से ही द्रव्यभाषात्व को अंगीकार किया जाए, ऐसी मान्यता को स्वीकार करने पर वचनयोगप्रभवा भाषा सिद्धान्त का भी विरोध होगा। इस सिद्धान्त का अर्थ है-वचनयोग भाषा का जनक है और भाषा वचनयोग से जन्य है। यहाँ वचनयोग का अर्थ है निसर्ग के अनुकूल कायव्यापार। जो कायव्यापार निसर्ग का हेतु है, वह कायव्यापार वचन-योगात्मक है अथवा वचनयोग की दूसरी व्याख्या विवरणकार ने इस तरह बताई है कि काययोग से गृहीत भाषाद्रव्यों के समूह के आलम्बन से जीव जो व्यापार करता है, वह जीवव्यापार वचनयोग है। वचनयोग के दोनों अर्थ में क्या अंतर है? इसका स्पष्टीकरण स्वोपज्ञ टीका में उपाध्याय यशोविजय ने किया है। प्रस्तुत में विवरणकार कहते हैं कि बचनयोग चाहे भापाद्रव्य त्याग हेतुभूत शरीरव्यापारात्मक हो या चाहे काम योग से गृहीत भाषाद्रव्यों की सहायता में होने वाला जीव व्यापारात्मक हो, इस विषय में हमारा कोई आग्रह नहीं है। मगर हमारा कहना तो यह है कि तादृश वचनयोग से जो उत्पन्न होता है, वह भावभाषा ही है, न कि द्रव्यभाषा। यह तो एक प्रसिद्ध नियम है कि जीव किस कार्य के अनुकूल प्रयत्न करता है। उस प्रयत्न से वह कार्य उत्पन्न होता है, अन्य कार्य नहीं। जैसे कुम्हार घटोत्पाद के अनुकूल प्रयत्न करे और पट की उत्पत्ति हो जाए, यह तो कथमपि संभव नहीं है। इसी तरह यहाँ वचन-योग निसर्गानुकूल काव्य-व्यापार रूप माना जाए, तब उससे निःसर्ग की उत्पत्ति अवश्य होगी, अन्यथा वह वचनयोग निःसर्ग अनुकूल ही नहीं होगा। अर्थात् वह वचन-योग वचनयोगरूप ही नहीं होगा, अन्यरूप ही होगा। चाहे निःसर्ग कहो या चाहे भाषाद्रव्यों का त्याग कहो या चाहे भावभाषा कहो, सिर्फ शब्द ' में ही फर्क है, अर्थ में नहीं। - अतः तादृश वचन योगजन्य भाषा को भावभाषा स्वरूप ही मानना होगा। यदि वचनयोग को काययोग से गृहीत भाषाद्रव्यों में आलम्बन वाले जीव व्यापारस्वरूप माना जाए, तब भी इससे भावभाषा की ही उत्पत्ति होगी, क्योंकि गृहीत भाषाद्रव्यों में आलम्बन से जीव गृहीत भाषा-द्रव्यों में भाषा परिणाम का आधार करके उन भाषा-द्रव्यों को छोड़ने का ही काम करता है, दूसरा नहीं। अतः तादृश जीव व्यापारस्वरूप वचनयोग से जन्य भी भावभाषा ही होगी, न कि द्रव्यभाषा। तादृश वचनयोग से जन्य भाषा निसर्गरूप ही है। अतः निःसर्ग भाषाद्रव्य में स्वरूपतः द्रव्यभाषात्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी। अतः ग्रहणादि तीन भाषाद्रव्यों में विवक्षा से ही द्रव्यभाषात्व का स्वीकार उचित है। द्रव्यप्राधान्य की विवक्षा से निसरणभाषा द्रव्य में द्रव्यभाषात्व के स्वीकार से भावभाषात्व का अपलाप नहीं होता है। अतः 'वचोयोगप्रभवः भाषा' इस सिद्धान्त का भंग भी नहीं होता है और ग्रहणादि तीन भाषा-द्रव्यों में 431 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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