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________________ भी बहुत ही उपयोगी है। अगर भाषा का ज्ञान है पर उनकी शुद्धि नहीं है तो भी अनर्थ खड़ा हो जाता है, जैसे-युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका की सरकार ने कुछ साल पहले फल के पौधे की, जिनकी आयात हो रही थी, करमुक्त करने का तय किया था, जिसका All foregin fruit-plants ऐसा उल्लेख न होकर All foreign fruit-plants ऐसा लिखित उल्लेख प्रकट हुआ था। भाषा की अशुद्धि की बदौलत आम केले आदि फलों को आयात कर-मुक्त बनने से 20,00,000 डॉलर का नुकसान हुआ। भाषा की अविशुद्धि से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। इस सत्य की समर्थक एक दूसरी घटना इस तरह घटी थी। किसी एक संसदसदस्य ने दूसरे संसदसदस्य पर झूठ बोलने का इल्झाम लगाया जिसकी वजह से उसे लिखित क्षमापात्र देने को मजबूर होना पड़ा कि I said he was a liar, it is true, and I am sorry for it. मगर वर्तमान पत्र में इसका निर्देश I said he was a lair it is true and I am sorry for it.-इस ढंग से होने के सबब से भारी गैर-समझ हो गई। विषं दधात् का विषां दधात्-ऐसा परिवर्तन होने से मौत के स्थान में राजकन्या, सार्वभौम साम्राज्य आदि पाने का दृष्टान्त भी सुप्रसिद्ध है। ऐसे तो अनेक प्रसंग हैं जो भाषाशुद्धि की उपादेयता एवं भाषा अविशुद्धि की हेयता को घोषित कर रहे हैं। भाषा (वचनयोग) में एक ऐसा सामर्थ्य निहित है, जो कोबाल्ट बॉम्ब की भांति महाविनिपात का सृजन करने में सक्षम होता है तो कभी पुष्करावर्त मेघ की तरह दूसरों के जीवन में नई चेतना, अनूठा आनन्द, अनुपम स्वस्थता आदि को फैलाने में भी। जीवन व्यवहार में आग की भांति वाणी अति आवश्यक भी है एवं विस्फोटक भी। अतएव न तो उसका सर्वथा त्याग किया जा सकता है और न निर्विवाद एवं बेखौफ उपयोग भी। एतदर्थ जीव में से शिव बनने के लिए सरा उद्योगी साधनों के लिए भाषा से भलीभांति सुपरिचित होना अनिवार्य ही नहीं बल्कि अति आवश्यक है-यह बताने की जरूरत नहीं है। भारतीय के माध्यम से किस पहलू से अपने इष्ट फल की सिद्धि हो, जिससे जिनाज्ञा का भंग न हो, यह ज्ञान होना प्रत्येक साधक के लिए प्राणवायु की भांति आवश्यक है। . अद्यतन काल में भाषा का ज्ञान साधु भगवंत एवं जन-साधारण के लिए नितान्त आवश्यक है। कोई भी भाषा हो परन्तु वह भाषा सभी प्रकार से विशुद्ध होनी चाहिए, क्योंकि भाषा विशुद्ध परम्परा से मोक्ष का कारण है। यह भाषा रहस्य ग्रंथ का हार्द है। यह बात उपाध्याय यशोविजय ने ग्रन्थ की अवतरणिका में ही कही है, जैसे-इह खलु निःश्रेयसार्थिना भाषाविशुद्धि खश्यमादेया, वाकसमितिगुष्योश्च तदधीनेत्वात् तयोश्च चारित्राङ्गत्वात् तस्य च परमनिःश्रेयसहेतुत्वात्।। भाषा (वाक्गुप्ति) अष्टप्रवचन माता का अंग है। भाषा विशुद्धि का अनभिज्ञ अगर संज्ञादि परिहार से मौन रखे तो भी उसे वाक्गुप्त का फल प्राप्त नहीं होता है। अतः भाषा विशुद्धि नितान्त आवश्यक है। इसलिए सावध, निरवद्य, वाच्य, अवाच्य, औत्सर्गिक, आपवादिक, सत्य, असत्य आदि भाषा की विशिष्ट जानकारी हेतु, अष्टप्रवचनमाता के आराधकों के लिए भाषा रहस्य ग्रंथ गागर में सागर है। ऐसा उपाध्यायजी का कहना है। विचार और भाषा ___ यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि क्या भाषा के बिना विचार या चिंतन संभव है? सामान्यतया यही माना गया है कि चिंतन के लिए भाषा या शब्द व्यवहार आवश्यक नहीं है। कोई भी चिंतन बिना भाषा या शब्द व्यवहार के संभव नहीं है। जैन दर्शन में भाषा और विचार के पारस्परिक सम्बन्ध के इस प्रश्न को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के पारस्परिक सम्बन्ध के रूप में उठाया गया है। यद्यपि सभी जैन आचार्यों 423 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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