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________________ श्रोता एवं पाठक इस शास्त्र में प्रवृत्ति करते हैं। अतः अभिधेय अनुबन्ध रूप कहा जाता है। विषय, सम्बन्ध, अधिकारी और प्रयोजन के भेद से अनुबन्ध चार प्रकार का है। यहाँ विषयरूप अनुबंध को कंठतः ग्रहण किया गया है, शेष तीन अनुबंध सामर्थ्यगम्य हैं। जैसे कि अपने वाच्यार्थ के साथ इस विवरण का अभिधेय-अभिधायक भाव सम्बन्ध है। जो भाषा-विषयक रहस्यार्थ का जिज्ञासु होगा, वो ही यहाँ अधिकारी है-यह बात भी अर्थतः प्रतीत होती है तथा व्याख्याकार का अनंतर प्रयोजन शिष्यों पर उपकार करना और श्रोता-पाठक का अनंतर-साक्षात् प्रयोजन है-भाषा-विषयक ऐदम्पर्य ज्ञान की प्राप्ति। दोनों का परम्परप्रयोजन है-मोक्ष की प्राप्ति। यह बात भी सामर्थ्यगम्य है। यद्यपि यहाँ विवरणकार ने शब्दतः सिर्फ अभिधेयरूप अनुबंध का ही ग्रहण किया है, तथापि 'तदग्रहणे च तत्सजातीयोऽपि गृह्यते' अर्थात् न्याय से अनुबन्ध सजातीय होने से सम्बन्ध-अधिकारी और प्रयोजन को भी अर्थतः ग्रहण किया गया है। स्व-पर को मोक्ष की प्राप्ति के लिए जैसे रत्नत्रयी की प्ररूपणा, ज्ञान एवं इसका पालन आवश्यक है, वैसे ही रत्नत्रय के.उपकारक और वह उपकारक जिसके अधीन हो-इन दोनों का ज्ञान एवं पालन के लिए दोनों का भी प्ररूपण आवश्यक प्रतीत होता है। मोक्ष का प्रधान हेतु चारित्र है और उसके उपकारक रूप से 5 समिति और 3 गुप्ति प्रसिद्ध है, जिनमें भाषासमिति और वचनगुप्ति भी अंतःप्रविष्ट है। भाषा-समिति और वचनगुप्ति भाषा विशुद्धि के अधीन हैं। तदर्थ भाषा-विशुद्धि का प्रतिपादन भी आवश्यक है। भाषा-विशुद्धि भाषाविशुद्धि के ज्ञान पर अवलम्बित है तथा प्रस्तुत प्रकरण भाषा-विशुद्धि का प्रतिपादक होने से भाषाविशुद्धि विषयक ज्ञान का, जो कि मोक्ष के प्रधान कारणभूत चारित्र के अंगरूप भाषा समिति-गुप्ति की नियामक भाषा विशुद्धि की इच्छा का जनक है, कारण है। अतः यह प्रकरण : भी परम्परा से मोक्ष का कारण-प्रयोजन है। मुमुक्षु के लिए मोक्ष के प्रधान कारण चारित्र के उपकारक भाषा समिति और वाक्गुप्ति जिसके अधीन हैं, वह भाषा-विशुद्धि अवश्य उपादेय है, क्योंकि कार्य की सिद्धि के लिए कार्य के उपायों में प्रवृत्ति आवश्यक है तथा उपायों में प्रवृत्ति करने के लिए उपायों का ज्ञान भी अनिवार्य है। इससे उपाध्याय यशोविजय द्वारा साक्षात् प्रयोजन में निर्देशित 'परोपकाराय सतां विभूतयः महापुरुषाणां प्रवृत्तिः परोपकारव्याप्ताभवति।" ये दो उक्तियां यहां स्मृतिपट पर आती हैं। किसी भी कार्य में प्रवृत्ति करने के पूर्व में अपने इष्टदेव को नमस्कार करना-यह शिष्टों का आचार होने से मंगलाचरण से शिष्टाचार का परिपालन भी सम्पन्न हुआ है, जैसे-'भोजनेन तृप्तो भवति' वाक्य से भोजन में तृप्ति की प्रयोजकता का और तृप्ति में भोजन-प्रयोजकता का ज्ञान होता है अर्थात् भोजन का प्रयोजन तृप्ति है, ऐसा बोध होता है। वैसे यहाँ 'तेन शिष्टाचारः परिपालितो भवति'18 इस वाक्य से मंगल में शिष्टाचार परिपालन की प्रयोजकता और शिष्टाचार परिपालन में मंगल-प्रयोज्यता ज्ञात होती हैं। अतः मंगल का प्रयोजन शिष्टाचार है, यह ज्ञात होता है। उपाध्याय यशोविजय की दृष्टि से भाषा, भाषादर्शन एवं भाषा रहस्य ग्रंथ को समझकर, जानकर सदाचारी शिष्ट जन चारित्र की निर्मलता को प्राप्त करे, यह ग्रंथकार का प्रयोजन है।" भाषा का प्रयोजन यानी भाषा का अगर ज्ञान नहीं होगा तो अपन कुछ भी चिंतन, मनन, विचार, व्यवहार वही कर सकते हैं। कई बार भाषा का ज्ञान नहीं होने के कारण अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है और यह अनर्थ पाप का कारण एवं अन्य का मारक बनता है। इसलिए भाषा के साथ-साथ भाषाविशुद्धि 422 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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