________________ किस प्रकार समझते हैं? इसका सम्भाव्य उत्तर यही हो सकता है कि तीर्थंकर कुछ ऐसे ध्वनि-संकेतों और शारीरिक-संकेतों और मुद्राओं का प्रयोग करते थे, जिससे वे उनके कथन के आशय को समझ लेते थे। आज भी मानव-व्यवहार में ऐसे अनेक ध्वनि-संकेत और शरीर-संकेत हैं, जिनका अर्थ अन्य भाषा-भाषी ही नहीं, पशु-पक्षी भी समझ लेते हैं। दिगम्बर परम्परा तो तीर्थंकर की दिव्य-ध्वनि को अक्षरात्मक न मानकर अनक्षरात्मक ही मानती है। अतः जैनों के अनुसार न तो ईश्वर जैसी सत्ता है, न तीर्थंकर भाषा के स्रष्टा हैं। भाषा ईश्वर-सृष्ट न होकर प्राणी-सृष्ट है तथा प्रवाह रूप से अनादि है। इस प्रकार भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जैनमत नैयायिकों से भिन्न है। भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में भाषा-वैज्ञानिकों में दूसरे सिद्धान्त-धातु सिद्धान्त, निर्णय सिद्धान्त, ध्वनि-अनुकरण सिद्धान्त, मनोभाव अभिव्यक्ति-सिद्धान्त, इंगित सिद्धान्त आदि प्रचलित हैं। यद्यपि इनमें से कोई भी सिद्धान्त भाषा की उत्पत्ति की निर्विवाद व्याख्या कर पाने में समर्थ नहीं है। वस्तुतः भाषा एक विकासमान एवं गत्यात्मक प्रक्रिया है। उस पर अनेक बातों का प्रभाव पड़ता है। इसलिए केवल किसी एक सिद्धान्त के आधार पर उसकी उत्पत्ति को सिद्ध नहीं किया जा सकता। जैनियों के अनुसार भाषा अर्थसंकेत और अर्थबोध जीव के प्रयत्नों का ही परिणाम है; और ये प्रयत्न देश, काल और परिस्थिति के अनेक तथ्यों से प्रभावित होते हैं। जैन दर्शन अनेकान्तवाद का समर्थक है और इसलिए एकान्तरूप .. से किसी एक अवधारणा को अन्तिम मानकर नहीं चलता। निष्कर्ष रूप में भाषा ईश्वर-सृष्ट न होकर अभिसमय या परम्परा से निर्मित होती है। उसके अनुसार भाषा कोई ऐसा तथ्य नहीं है, जो बना बनाया (रडिमेड) मनुष्य को मिल गया है। भाषा बनती रहती है, वह स्थित नहीं, अपितु सतत् रूप से गत्यात्मक (डायनेमिक) है। यह किसी एक व्यक्ति, चाहे वह ईश्वर हो या तीर्थंकर, की रचना नहीं है अपित कालक्रम में परम्परा से विकसित होती है। भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यही ऐसा सिद्धान्त है, जो जैनों को मान्य हो सकता है। भाषा के प्रयोजन शिष्ट पुरुष किसी भी कार्य के प्रारम्भ में उस कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए मंगलाचरण करते हैं। व्याख्याकार श्रीमद्जी भी इस शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने इष्टदेव को नमस्कार, जो . मंगलरूप हैं, करते हैं। इससे विवरणकार की आस्तिकता भी प्रतीत होती है। भाषा रहस्य ग्रंथ के विवरण के मंगलश्लोक को दिखाते हुए कहा है एन्द्रवृन्दनतं पूर्णज्ञानं सत्यगिरं जिनम्। नत्वा भाषा रहस्यं स्वं विवृणोमि यथामिति।। विवरण ग्रंथ के मंगलश्लोक में भाषा रहस्य नामक ग्रंथ का विवरण करने की प्रतीज्ञा का उल्लेख है। विवरण का अर्थ है-तुल्यार्थक स्पष्ट करना। मूल वाक्य से इसका विवक्षित अर्थ स्पष्ट न होता तब इसे स्पष्ट करने वाली शब्दश्रेणी को विवरण कहा जाता है। वह तो मूलग्रंथ में अंतर्निहित रहस्यार्थ को खोलने की कुंजी मात्र है। इस कथन से मूल ग्रंथ की गम्भीरता सूचित होती है। भाषा रहस्य स्वयं इससे अभिधेय बताया गया है। इसको विषयरूप अनुबन्ध भी कहा जाता है। अनुबंध का अर्थ है-स्वविषयक ज्ञानद्वारा शास्त्रे प्रवर्तकः, अर्थात् अपना ज्ञान कराकर जो शास्त्र में प्रवर्तन करता है, वह अनुबन्ध कहा जाता है। ग्रंथ के विषय का ज्ञान होने पर विषय के अर्थी 421 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org