________________ से प्राणी जगत् का अस्तित्व है, भाषा का अस्तित्व है अर्थात् संकेतों के माध्यम से भावों एवं विचारों के संप्रेषण का कार्य होता रहा है। यह बात अलग है कि आधुनिक वैज्ञानिकों की दृष्टि से इस पृथ्वी पर किसी काल-विशेष में जीवन का प्रारम्भ माना जाता है किन्तु विश्व में जीवन के अस्तित्व को अनादि मानकर हम भाषा को अनादि मान सकते हैं, यद्यपि देश और कालगत परिवर्तन भाषा के स्वरूप को परिवर्तित करते हैं। भारतीय दर्शन में मीमांसक वेद को नित्य और वैयाकरणिक वर्ण ध्वनि को क्षणिक मानकर भी कोट को नित्य मानते हैं; और उस आधार पर भाषा को अनादि मानते हैं। दूसरी ओर नैयायिक शब्द को प्रयत्नजन्य और जगत् को सृष्ट मानते हैं और इस आधार पर भाषा को भी सादि या ईश्वर-सृष्ट मानते हैं, जबकि जैन सामान्य भाषा अर्थात् संकेतों को अर्थबोध-सामर्थ्य को नित्य मानकर भी भाषा-विशेष को सादि या अनित्य मानते हैं। भाषा की उत्पत्ति के अन्य सिद्धान्त और जैन दर्शन भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में विभिन्न सिद्धान्त प्रचलित हैं, किन्तु इनमें प्राचीनतम सिद्धान्त भाषा की दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त है, जो यह मानता है कि भाषा की रचना ईश्वर के द्वारा की गई है। भारतीय दर्शनों में न्यायदर्शन भाषा को ईश्वर के द्वारा सृष्ट मानता है। ईसाई एवं इस्लाम धर्मों में भी भाषा को ईश्वर द्वारा सृष्ट बताया गया है। यद्यपि मीमांसक दार्शनिक शब्द को अनादि मानने के कारण भाषा को भी अनादि बताते हैं। शब्दाद्वैतवादियों ने शब्द को ही ब्रह्म मानकर भाषा को अनादि माना है। फिर भी उनकी अनादि की कल्पना जैनों की अनादि की कल्पना से भिन्न है। जैनों का अनादि से आशय मात्र इतना ही है कि भाषा का प्रारम्भ कब से हुआ, यह बता पाना कठिन है। उन्होंने भाषा को ईश्वर सृष्ट नहीं माना है। जैनों के अनुसार भाषा की उत्पत्ति ईश्वर से नहीं अपितु जीव-जगत् या प्राणी-जगत् से है। जैन चिन्तकों के अनुसार भाषा की बहुविधता ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि भाषा ईश्वर-सृष्ट न होकर जीव-सृष्ट है। जीव-जगत् की विविधता ही भाषा की विविधता का आधार है। यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि डॉ. भोलानाथ तिवारी ने अपनी पुस्तक भाषा-विज्ञान में जैनों को भी भाषा की दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त को मानने वाला बता दिया है। इसके लिए उन्होंने जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, वही उनके कथन को असंगत सिद्ध करता है। वे लिखते हैं-जैन लोग तो संस्कृत पण्डितों और बौद्धों से चार कदम आगे हैं। उनके अनुसार जो अर्धमागधी केवल मनुष्यों की ही मूल भाषा नहीं, अपितु सभी जीवों की मूल भाषा है। .....और जब महावीर स्वामी इस भाषा में उपदेश देते हैं तो क्या देवी योनि के लोग और क्या पशु-पक्षी-सभी उस उपदेश का रसास्वादन करते थे। डॉ. भोलानाथ तिवारी की अवधारणा वस्तुतः जैन परम्परा को सम्यक्त्व से नहीं समझ पाने के कारण है। जैनों ने यह कभी नहीं माना कि अर्धमागधी सभी जीवों की मूल भाषा है। जैन दार्शनिकों के अनुसार सभी प्राणियों की अपनी-अपनी भाषा होती है और तीर्थंकरों के उपदेश को वे अपनी-अपनी भाषा में ही समझते हैं कि अर्धमागधी भाषा में। समवायांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भगवान अर्धमागधी भाषा में उपदेश देते हैं। उनके द्वारा बोली गई अर्धमागधी भाषा आर्य, अनार्य आदि मनुष्य, मृग, पशु आदि चतुष्पद, परिसृप और पक्षी सभी को अपनी-अपनी हितकर, कल्याणकर और सुखरूप भाषा में परिणत हो जाती है।" अर्थात् वे सभी उसे समझकर अर्थबोध प्रगट कर लेते हैं। इससे इतना स्पष्ट है कि उन सबकी अपनी-अपनी अलग भाषा है। यद्यपि यह एक भिन्न प्रश्न है कि वे उसे अपनी भाषा में 420 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org