________________ भाषा णं जीवादिया, सरीरप्पभवा, वज्जसंठिया लोगंत पज्जवसिया पष्णता। अर्थात्- 1. हे भगवन्! भाषा का प्रारम्भ कब से है? 2. भाषा की उत्पत्ति किससे होती है? 3. भाषा की संरचना (संस्थान) क्या है और 4. उसका पर्यवसान कहाँ है? इन प्रश्नों में प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हुए महावीर ने कहा-भाषा का प्रारम्भ जीव (प्राणी जगत) से है। महावीर का यह उत्तर वर्तमान युग की भाषा वैज्ञानिक खोजों से प्रमाणित हो जाता है। भाषा प्राणी जगत् में ही सम्भव है। यह बात अलग है कि विभिन्न प्राणियों में अथवा मानव इतिहास की विभिन्न अवस्थाओं में भाषा का स्वरूप भिन्न-भिन्न रहा हो, परन्तु इतना निश्चित सत्य है कि प्राणी जगत् के अस्तित्व के साथ भाषा का भी अस्तित्व जुड़ा हुआ है। भाषा आत्माभिव्यक्ति का साधन है और यह आत्माभिव्यक्ति की प्रवृत्ति सभी प्राणियों में पाई जाती है। सभी प्राणी आत्माभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट प्रकार से ध्वनि संकेतों अथवा शारीरिक संकेतों का प्रयोग करते हैं। जैन चिन्तकों ने भाषा को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया है-1. अक्षरात्मक भाषा और 2. अनक्षरात्मक भाषा।" - जैन दर्शन में मनुष्यों की भाषा को अक्षरात्मक और मनुष्येतर प्राणियों तथा अक्षरात्मक के बालकों एवं मूक मनुष्यों की भाषा को अनक्षरात्मक भाषा के रूप में मान्य किया है। आधुनिक भाषा वैज्ञानिकों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि पशु-पक्षी जगत् में अपनी आत्माभिव्यक्ति के लिए ध्वनि को शारीरिक संकेतों का उपयोग होता है अतः जैन दार्शनिकों की यह मान्यता कि पशु जगत् में भी अव्यक्त रूप में भाषा की प्रवृत्ति पाई जाती है, समुचित सिद्ध होती है। भाषा का तात्पर्य संकेतों के माध्यम से भाषा का सम्प्रेषण है। चाहे कितने ही अस्पष्ट रूप में ही क्यों न हो, पशुओं में ही यह प्रवृत्ति पाई जाती है। अतः जैन विचारकों की यह मान्यता समुचित है कि विश्व में जब से प्राणी का अस्तित्व है, तभी से भाषा का अस्तित्व है। प्रज्ञापना के उपर्युक्त कथन का तात्पर्य ही यह है कि भाषा के आदि का प्रश्न प्राणी जगत् के आदि के प्रश्न के साथ जुड़ा हुआ है और उससे पृथक् करके इसे नहीं देखा जा सकता है। चूँकि जैन मान्यता के अनुसार प्राणी जगत् का अस्तित्व अनादिकाल से है, अतः भाषा का प्रवाह भी अनादिकाल से चला आ रहा है। यद्यपि कालक्रम एवं देशादि के भेद से उसमें भिन्नता का होना भी स्वाभाविक है। जैनों के अनुसार सत् के स्वरूप के समान भाषा के स्वरूप को भी परिणामी-नित्य ही मानना होगा। भाषा परिवर्तनों के मध्य जीवित रहती है। उनके अनुसार भाषा का कोई स्रष्टा नहीं है। वह जीवन के अस्तित्व के साथ ही चली आ रही है, फिर भी देश एवं कालक्रम में उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। भाषा सादि है या अनादि? इस प्रश्न का समाधान जैन दार्शनिकों ने श्रुत के सादिश्रुत और अनादिश्रुत-ऐसे दो भेद करके भी किया है। श्रुत भाषा पर आधारित है। अतः उसके सादि या अनादि होने का प्रश्न भाषा के सादि या अनादि होने के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। यदि जैन दर्शन में अपेक्षा भेद से श्रुत को सादि और अनादि या दोनों माना जा सकता है तो फिर अपेक्षा-भेद से भाषा को भी सादि और अनादि दोनों कहा जा सकता है। किसी विशेष व्यक्ति के द्वारा या किसी देश या काल में विकसित होने की अपेक्षा से अथवा किसी प्रयत्न विशेष द्वारा बोली जाने की दृष्टि से भाषा सादि है, किन्तु भाषा परम्परा या भाषा-प्रवाह अनादि है। यद्यपि भाषा को अनादि मानने का तात्पर्य इतना ही है कि जब 419 29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org