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________________ ने इस बात को एकमत से स्वीकार किया है कि श्रुतज्ञान (भाषायी ज्ञान), मतिज्ञान (इन्द्रिय बोध) के बिना सम्भव नहीं है। श्रुत मतिपूर्वक है, इस बात को तत्त्वार्थ एवं अन्य ग्रंथों में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। वस्तुतः चिंतन या विमर्श के पूर्व इन्द्रिय संवेदन आवश्यक है। इन्द्रियबोध ही वह सामग्री प्रस्तुत करता है, जिस पर चिन्तन या मनन होता है और जिसका सम्प्रेषण दूसरों के प्रति किया जाता है। अतः जैनों की यह अवधारणा समुचित ही है कि मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है। विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि मतिज्ञान ही श्रुतज्ञान का पोषण करता है, उसे पूर्णता प्रदान करता है, क्योंकि मतिज्ञान से श्रुत का पुनरावर्तन होता है। मतिज्ञान से ही श्रुतज्ञान प्राप्त किया जाता है और मतिपूर्वक ही श्रुतज्ञान दूसरों को प्रदान किया जाता है। विशेषावश्यक भाष्य में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के सम्बन्ध को लेकर गम्भीर चर्चा उपस्थित की गई है। विशेषावश्यक भाष्यकार भी इस बात को स्वीकार करता है कि मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है, किन्तु मतिज्ञान श्रुतज्ञान पूर्वक नहीं होता है। यद्यपि मल्लधारी आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी विशेषावश्यक वृत्ति में इतना अवश्य स्वीकार कर लिया है कि मतिज्ञान भी द्रव्यश्रुत पूर्वक होता है। वस्तुतः इस चर्चा में उतरने के पूर्व हमें यह समझ लेना होगा कि श्रुतज्ञान में मतिज्ञान का और मतिज्ञान में श्रुतज्ञान का अवदान किस प्रकार से होता है। जैन आचार्यों ने मतिज्ञान के अन्तर्गत इन्द्रिय संवेदन और मानसिक संवेदनों के साथ चिंतन, विचार और तर्क को भी समाहित किया है। यदि यह प्रश्न होता है कि चिन्तन, मननादि क्या बिना भाषायी व्यवहार से संभव है और यदि वे बिना भाषा के सम्भव नहीं हैं तो फिर मतिज्ञान के जो अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा-ऐसे चार भेद किये गए हैं, उनमें अवग्रह को छोड़कर शेष सभी प्रकारों में चिंतन और विमर्श होता है, जो भाषा के बिना नहीं होता, अतः हमें यह मानना होगा कि अवग्रह को छोड़कर शेष सभी प्रकार का मतिज्ञान श्रुतज्ञान का अनुसारी है, क्योंकि यह स्पष्ट , है कि जहाँ भाषा व्यवहार है, वहाँ श्रुतज्ञान है और अवग्रह के बाद ईहा और अपाय में निश्चित रूप से भाषा व्यवहार है। विशेषावश्यक भाष्य एवं उपाध्याय यशोविजय की जैन तर्कपरिभाषा में यह प्रश्न उठाया गया है कि अवग्रह ही मतिज्ञान है; ईहादि भाषा, शाब्दोल्लेख सहित होने से मतिज्ञान नहीं होंगे, अतः उन्हें श्रुतज्ञान मानना पड़ेगा। इसके प्रत्युत्तर में यह कहा गया है कि यद्यपि ईहादि शब्दोल्लेख सहित है, फिर भी वे शब्दरूप नहीं हैं, क्योंकि अभिलाप्य ज्ञान जब श्रुत अनुसारी होता है, तभी वह श्रुत कहलाता है, अन्यथा नहीं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अन्तर व्यक्त वचन, व्यवहार एवं अक्षरप्रयोग के आधार पर किया गया है। वस्तुतः मतिज्ञान में अव्यक्तरूप से ही भाषा-व्यवहार देखा जाता है, व्यक्त रूप से नहीं। मति और श्रुत में भेद मूक और अमूक के आधार पर ही है। यह भी कहा जा सकता है कि ईहादि श्रुत निश्रित ही है, क्योंकि संकेत काल में सुने हुए शब्द का अनुसरण किए बिना वे घटित नहीं होते। यह ठीक होते हैं कि श्रुत से संस्कार प्राप्त मति वाले व्यक्ति को ईहादि उत्पन्न होते हैं, इसीलिए उन्हें श्रुत-निश्रित कहा गया, किन्तु उनमें व्यवहार काल में श्रुत का अनुसरण नहीं होता, अतः उन्हें श्रुतज्ञान रूप नहीं माना जा सकता। वस्तुतः चिंतन और मनन में अव्यक्त रूप में भाषा व्यवहार होते हुए भी बाह्यरूप से वचन-प्रवृत्ति का अभाव होता है और इसी बाह्य-वचन प्रवृत्ति के आधार पर या व्यक्त संकेतात्मकता के आधार पर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का भेद किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में मतिज्ञान के ईहादि भेदों में अव्यक्त रूप से भाषा-व्यवहार है और श्रुतज्ञान में व्यक्त रूप से भाषा व्यवहार है। रिपत रूप 424 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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