________________ कृतज्ञता ज्ञापन शोध-प्रबन्ध के प्रारम्भ से लेकर परिसमाप्ति के अंतराल में कछ असुविधाएँ एवं अवरोधों का सिलसिला चलता रहा। इसके मूलभूत कारण रूप में जैन श्रमण एवं श्रमणियों की आचार संहिता रही। विविध विधि-नियमों से अनुसंधित होने से अवरोध उपस्थित होते रहे। जो सुविधाएँ अन्य शोधार्थियों के लिए सहज उपलब्ध है, वे हमारे लिए सहजता से उपलब्ध करना कठिन ही नहीं, अपितु असंभव जैसा ही रहा है। घुमक्कड़ जीवन, पद विहार, वर्षावास कालीन अनेक धार्मिक अनुष्ठानों का उपक्रम, सन्दर्भ ग्रंथों की प्राप्ति की समस्या इन सभी कारणों से अनुसंधान कार्य में व्यवधान भी स्वाभाविक था। __ श्रमण जीवन में विद्यावाचस्पति की उपाधि का यद्यपि कोई विशेष महत्त्व नहीं है, फिर भी इस दिशा में जो भी प्रयत्न किया जाता है, इसका प्रमुख उद्देश्य यही है कि परीक्षा के निमित्त से अध्ययन हो जाता है। ज्ञानप्राप्ति के लिए ऐसा करना उचित प्रतीत होता है। शोध-प्रबन्ध के लिए जो उपक्रम हुआ, उसकी पृष्ठभूमि के रूप में एक ही ध्येय था कि परम्परागत लेखनकार्य तो गतिशील है किन्तु अनुसंधानात्मक दृष्टि से कुछ कार्य प्रस्तुत विषय पर हो तथा प्रबुद्ध पाठकों के हाथों में प्रस्तुत कृति का उचित अर्थांकन एवं मूल्यांकन हो। मैंने व्यावहारिक शिक्षण 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। उस समय मैंने सोचा भी नहीं था कि मैं इस स्तर तक अभ्यास कर पाऊँगी। समय-समय पर अध्ययन चलता रहा और परीक्षा भी उत्तीर्ण करती रही। इस शोध-ग्रंथ के प्रारम्भ से लेकर पूर्णाहुति के दो वर्ष के दौरान बहुत सारी रुकावटें, बाधाएँ, तकलीफें आईं। फिर भी कहते हैं कि “जहाँ चाह होती है, वहाँ राह मिल जाती है" इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए एवं मेरी अध्ययन-यात्रा में आई रुकावटों, तकलीफों एवं बाधाओं को दूर करने में सदैव गुरुभगवंतों का जो आशीर्वाद मिला, वह मेरे लिए अविस्मरणीय है। शासन के शणगार, अवनी के अणगार, श्रमण भगवंत, शासन पिता महावीर परमात्मा के शासन की मैं ऋणी हूँ कि उनके पावन शासन में मुझे जन्म मिला। इस अध्ययन, लेखन, वाचन, पठन, पाठन, चिंतन, मनन के दौरान मुझे प्रातःस्मरणीय, विश्वपूज्य, अभिधान राजेन्द्रकोष निर्माता, कलिकाल कल्पतरु परमआराध्य प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का दिव्यातिदिव्य आशीर्वाद एवं असीम कृपा सदैव रही है, जिनकी अदृश्य कृपा मेरे पर सतत बरसती रही और मुझे इस कार्य को निरन्तर, प्रतिपल शक्ति प्रदान करती रही। मेरी कोई ताकत नहीं है कि मैं इस कार्य को समाप्त कर सकूँ किन्तु कोई अपूर्व शक्ति सदैव मेरे लिए प्रेरणारूप बनी। वह दिव्य शक्ति और कोई नहीं, मेरी श्रद्धा के केन्द्र पूज्य दादा गुरुदेव राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., क्योंकि जब कभी मैंने अपने आपको असमंजस्स की स्थिति में पाया अथवा कहीं कोई बाधा उत्पन्न हुई, तभी मैंने परम आराध्य पूज्य दादा गुरुदेवश्री के नाम का आस्थापूर्वक स्मरण किया है और मेरा मार्ग प्रशस्त हो गया। उनके मंगलमय आशीर्वाद एवं कृपादृष्टि ही मेरे आत्मविश्वास का आधार हैं। मुझे इस स्तर तक पहुंचाने में मेरी आस्था के केन्द्र, साहित्य मनीषी, तीर्थ प्रभावक, मम जीवन उद्धारक, संयम दानेश्वरी, राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा. का असीम अपरम्पार आशीर्वाद रहा है। उनके आशीर्वादों ने इतनी कृपादृष्टि बरसाई है कि उन्हें शब्दों में गूंथ पाना नामुमकिन है। निराश मन को पुनः आशा की उज्ज्वल किरण देने वाले पूज्य गच्छाधिपति गुरुदेवश्री की मैं आजीवन ऋणी रहूँगी। साथ ही विश्वास रखती हूँ कि भविष्य में भी आपश्री की कृपादृष्टि मेरे संयमपथ को सदैव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org