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________________ प्रशस्त करती रहेगी। गुरुदेव के प्रति मेरे मन में कृतज्ञता के जितने भाव हैं, अभिव्यक्ति के लिए उतने शब्द नहीं हैं। उनके असीम उपकार को ससीम शब्दों से अभिव्यक्त कर सीमित करना नहीं चाहती। मैं शत शत वंदना के साथ उनके चरणों में श्रद्धा के सुमन समर्पित करती हूँ। जिनके जीवन का क्षण-क्षण शुद्धात्म भाव को स्वायत्त करने की दिशा में सर्वदा संप्रयुक्त रहा, जन-जन में विश्वमैत्री, समत्व, अहिंसा एवं अनेकान्त आदि महान् आदर्शों को संप्रसारित करने में जो सर्वथा अविश्रांत रूप में अध्यवसायरत रहे, ऐसे दादीगुरु हीरश्रीजी म.सा. एवं जिन्होंने बचपन में ज्ञान-वैराग्य की बातें बताकर मेरे जीवन को संयम मार्ग की ओर ले जाने वाली, मुझ पर मातृसदृश प्रेम की वर्षा करने वाली, साथ ही मेरी उन्नति, प्रगति के लिए सदैव प्रयत्न करने वाली सरल स्वभावी गुरुमैया (भुआजी म.सा.) भुवनप्रभाश्रीजी म.सा. की तो मैं आजीवन ऋणी रहूँगी, जिनके आशीर्वाद एवं स्नेह से मैं अपने अध्ययन को जारी रख सकी। मेरे शोध-प्रबन्ध में मेरी गुरु भगिनियाँ सा. श्री भक्तिरसाश्री सा. एवं सा. श्री सिद्धान्तरसाश्रीजी आदि ने सभी प्रकार से अनुकूलताएँ एवं सहयोग दिया। सेवाभावी सा. भक्तिरसाश्री सा. ने समय-समय पर सारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर मुझे अध्ययन के लिए समय एवं सुविधाएँ उपलब्ध करवाई। उनका अविस्मरणीय सहयोग मेरी श्रुतसाधना का प्राण है। ऐसे गुरु भगिनी (बेन म.सा.) की अन्तःस्पर्शी प्रेरणा एवं उत्साह भरे अनुग्रह के प्रति सर्वोपरि कृतज्ञता ज्ञापन करती हैं। साथ ही स्नेही-सहयोगिनी अनुजा साध्वीश्री सिद्धांतरसाश्रीजी का सहयोग प्रशंसनीय है, जिनकी अनुसंधान कार्य में निरन्तर विनयान्वित सेवाएँ रहीं, सर्वथा स्तुत्य है। मैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करके उनकी सेवाओं का अवमूल्य करना नहीं चाहती। मैं उनके प्रति अपनी कोमल भावनाएँ व्यक्त करती हूँ। दोनों बहिनों (सं. बहिनों) के सहयोग से मेरी ज्ञानयात्रा और संयम-यात्रा, साधना-यात्रा सुचारू रूप से चलती रहे। यही शुभेच्छा है। इस शोधग्रंथ का मुख्य श्रेय प्राप्त होता है जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं की पूर्व कुलपति डॉ. समणी मंगलप्रज्ञाजी एवं शोध विभाग के निर्देशक प्रोफेसर बच्छराजजी दूगड़ को, जिन्होंने मुझे यह शोधग्रंथ लिखने की स्वीकृति प्रदान की। अतः मैं उनकी आभारी हूँ। साथ ही मेरे शोध निर्देशक डॉ. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी, जो मेरे शोध-प्रबन्ध को सकारात्मक रूप प्रदान करने में प्रमुख मार्गदर्शक रहे। इस शोधकार्य का कुशलतापूर्वक निर्देशन करने में त्रिपाठीजी का आत्मीय सहयोग विस्मरण नहीं किया जा सकता है। उनके सचोट मार्गदर्शन के बिना ग्रंथ का पूर्ण होना असंभव था। वे शोध-विषय को अधिकाधिक प्रासंगिक एवं उपादेय बनाने हेतु सतत प्रेरित करते रहे। उन्होंने निरन्तर मेरे आत्मबल एवं उत्साह को बढ़ाया है। अतः उनका आभार सदा के लिए अविस्मरणीय बना रहेगा। इस कृति के प्रणयन के मूल आधार होने से इस कृति के साथ उनका नाम सदा-सदा के लिए स्वतः जुड़ गया है। वे शोध-प्रबन्ध के दिशा-निर्देशक ही नहीं हैं, वरन् मेरी मानसिक दृढ़ता के प्रतिष्ठाता भी हैं। मैं उनके प्रति अन्तर्हदय से भावाभिनत हूँ। ___ मेरे इस शोध-ग्रंथ के प्रारम्भ करने से पहले समुदायवर्तिनी साध्वी डॉ. अनेकान्तलताश्री, साध्वी डॉ. प्रीतीदर्शनाजी, साध्वी डॉ. दर्शनकलाजी ने भी मुझे समय-समय पर पी-एच.डी. को सुचारू रूप से समाप्त हो, ऐसी मंगलकामना के साथ मार्गदर्शन प्रदान किए, उनके प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ एवं इस अवसर पर मैं डॉ. ज्ञानजी को भी विस्मृत नहीं कर पाती, क्योंकि जब यह बीज बोया गया तो सुझाव रूपी पानी का काम उन्होंने किया, इसलिए मैं VI For Personal Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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