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________________ गए हैं। धर्म और अध्यात्म में क्या अंतर है? साथ ही भौतिक सुख और आध्यात्मिक सुख की श्रेष्ठता को सिद्ध किया है। अध्यात्म का तात्विक आधार आत्मा के स्वरूप पर चिंतन, मनन किया गया है। अध्यात्म में साधक, साध्य और साधनाकार्य का परस्पर संबंध बताया गया है। तृतीय अध्याय में उनके व्यक्तित्व को आलोकित करने वाली कृतियों में अवगाहित दार्शनिक तत्त्व, सत का स्वरूप, लोकवाद, अस्तिवाद, नवतत्त्व विचार, स्याद्वाद, सर्वज्ञता आदि को समन्वयवाद के तराजू से तोलकर, स्याद्वाद को आधार बनाकर, विरोधियों के वैर-विरोध को मिटाकर, मध्यस्थ जीवों को युक्तियुक्त बोध देने का प्रयास एवं तत्त्वमीमांसीय वैशिष्ट्य को उपाध्यायजी की दृष्टि में उजागर किया गया है। चतुर्थ अध्याय में उपाध्यायजी ने ज्ञानमीमांसा का उद्भव, विकास का वर्णन किया है। ज्ञान की विशिष्टता, परिभाषा, उनके भेद-प्रभेदों का दिग्दर्शन किया गया है। ज्ञानसहित जीवन स्वर-पर प्रकाशन बनता है। ज्ञानी अपने कर्मों का क्षय श्वासोच्छ्वास में कर लेता है, जबकि अज्ञानी आत्मा उन्हीं कर्मों को करोड़ों भवों में भी नष्ट नहीं कर सकती है। अतः जीवन में प्रतिपल ज्ञान प्राप्ति का पुरुषार्थ करना चाहिए। ज्ञानाभ्यास करती हुई आत्मा केवलज्ञान को प्राप्त करती है इसलिए केवलज्ञान की सर्वोत्तमता, ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान के भेदाभेद एवं उपाध्याजयी की दृष्टि में ज्ञान की विशिष्टता को उजागर किया गया है। उनके साथ-साथ इसी अध्याय में ही जैन न्याय का उद्भव एवं विकास, न्याय की परिभाषा, प्रमाण, लक्षण, आगमोत्तर युग में प्रमाण का क्रमिक विकास, प्रत्यक्ष प्रमाण एवं परोक्ष प्रमाण, न्यायशास्त्र के प्रमुख तीन अंग-प्रमेय, प्रमिति, प्रमाता, चार निक्षेप का स्वरूप आदि के सरल, सचोट विवेचन के साथ उपाध्यायजी ने प्रमाण-मीमांसा की विशिष्टतां को उजागर किया है। पंचम अध्याय अनेकान्तवाद एवं नय में अनेकान्तवाद का अर्थ, जैनदर्शन का आधार अनेकान्तवाद, अनेकान्तवाद का स्वरूप, अनेकान्तवाद का महत्त्व, नयवाद, नैगम, संग्रह आदि सप्तनयों का स्वरूप एवं अंत में उपाध्यायजी की दृष्टि में अनेकान्तवाद एवं नय की विशिष्टता को विश्लेषित किया गया है। अष्टम अध्याय यशोविजयजी का रहस्यवाद में रहस्य शब्द की व्युत्पत्ति, उनके विभिन्न अर्थ, / / विभिन्न धर्मग्रंथों में रहस्य का अर्थ, रहस्य शब्द का प्रयोग, रहस्य शब्द की विविध व्याख्याएँ एवं परिभाषाएँ, उनके प्रकार, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, वेदों में उपनिषदों, भगवत गीता, भगवत पुराण, भक्ति सूत्र, बौद्ध धर्म, सूफी कवियों में, संत कवियों में, सगुण भक्ति कवियों में, आधुनिक हिन्दी कवियों में, रहस्यवाद के मर्म को बताते हुए जैन धर्म में रहस्यवाद को प्रस्तुत किया और अंत में उपाध्यायजी की दृष्टि में रहस्यवाद की विशिष्टता को आलेखित किया। उपाध्याय यशोविजय साहित्य जगत् रूपी आकाश में सूर्य की भांति दैदीप्यमान हुए। समस्त दर्शनों में दार्शनिकों रूपी नक्षत्रों को अपने साहित्य में उन्होंने किस प्रकार स्थान दिया? अन्य दर्शनों की अवधारणाओं का विचारधाराओं का उल्लेख एवं उनके उन्नायकों के विचारों के बीच किस तरह समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया, उनका एवं कर्म, सत, आत्मा, योग, मोक्ष, प्रमाण, सर्वज्ञ, न्याय आदि समस्त दार्शनिक तत्त्वों का किस प्रकार विवेचन किया? उनके इस दार्शनिक चिंतन के वैशिष्ट्य विशेष रूप में नवम अध्याय में संकलित करने का प्रयास किया है। IV Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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