________________ निबन्धों आदि के पठन-पाठन से भी प्रेरणा मिलती रही। वही प्रेरणा मेरे जीवन का आधार बन गई, मेरे जीवन का लक्ष्य बन गई। तब से ही उनके साहित्य का अध्ययन शुरू किया। अध्ययन करते हुए उनकी समन्वयवादिता एवं दार्शनिकता मेरे दृष्टिपथ में आई, साथ ही उन कृतियों का अर्थचिंतन करते हुए मेरी मानस मेधा में विचार आया कि क्यों न विद्वजनों एवं साहित्य-शोधकों के समक्ष उनके सम्पूर्ण साहित्य के निचोड़रूप दार्शनिकता को प्रकाशित किया जाए, जो जिज्ञासुओं के लिए सुलभ बन सके। संयोगों की प्रतीक्षा में थी, वही प्रतीक्षा शोध कार्य निमित्त पाकर प्रयोगों में मूर्तिमान बनी। उनके फलस्वरूप यह शोध्रगन्थ प्रस्तुत है। __ उपाध्यायजी ने अपने जीवन में कितने ग्रंथों की रचना की, वो संख्या निश्चित नहीं है। उन्होंने जितने लिखे, उतने उपलब्ध भी नहीं हैं। उनके साहित्य पर दृष्टि करें तो पता चलता है कि आज हम उनके संख्याबंध ग्रंथों के दर्शन से तो क्या, नामश्रवण से भी वंचित हैं। कितना ही साहित्य कालक्रम से विनष्ट हो चुका है। रहस्य से अंकित 108 ग्रंथों की रचना का उल्लेख है पर मुश्किल से रहस्यांकित 4, 5 ग्रंथ मिल रहे हैं। न्यायविशारद होने के बाद उन्होंने 100 ग्रंथों की रचना की तब उन्हें न्यायाचार्य विरुद से विभूषित किया था। लेकिन वो भी उपलब्ध नहीं हो रहा है, जिसे कई उल्लेखों, अवतरणों, प्रतियों, पुस्तकों एवं ज्ञानभण्डारों का अवगाहन, अवलोकन करते हुए मुश्किल से 60-70 ग्रंथ उपलब्ध हुए। उन ग्रंथों में उपाध्यायजी ने दार्शनिक विचारों का नव्यन्याय की शैली से जिस ढंग से विश्लेषित किया है, उन सभी को प्रस्तुत करना मेरे लिए शक्य नहीं है, फिर भी अधिक से अधिक दार्शनिक वैशिष्ट्य को व्याख्यायित, विवेचित एवं विश्लेषित करने का प्रयास किया है। इन जिनशासनरूपी महासागर में महोपाध्याय यशोविजय के सम्पूर्ण साहित्य का वाङ्मयरूप दार्शनिक चिंतन का वैशिष्ट्य रूप महा उद्यान आज गुरुकृपा से अंकुरित, अनिभव एवं प्रतिभा से नवपल्लवित एवं नवीन युक्तियों से सज्जित तथा नूतन निष्कर्षों से फलित, रहस्यार्थ निरूपण की खुशबू से प्लावित एवं स्वदर्शन मण्डन, परदर्शन खण्डनात्मक खट्टे-मीठे आलादक रस से व्याप्त आम्रफल जिज्ञासु पथिकवृन्द की तृप्ति के लिए नवीन-प्राचीन द्विविध न्यायशैली रूप शीतल पवन की लहर से झूम रहा है, सुशोभित हो रहा है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध 9 अध्यायों में विभक्त है, जिसके प्रथम अध्याय में उपाध्यायजी के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर विचार किया गया है। उपाध्याय यशोविजयजी विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में एक विद्वान एवं एक आध्यात्मिक संत के रूप में प्रसिद्ध हुए। उनके जीवन के विषय में अनेक दंत कथाएँ एवं किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। इस अध्याय में उनके व्यक्तिगत जीवन के परिचय के साथ मुनिजीवन, शासन प्रभावना एवं गुणानुराग, विनय, निरभिमानता, उदारवादी, समन्वयवादी आदि विशेषताओं से विशिष्ट व्यक्तित्व बनाकर वाङ्मयी वसुंधरा पर कल्पवृक्ष बनकर सभी की जिज्ञासापूर्ति करने में समर्थ बने हैं। उनका कर्तृत्व ही उनके व्यक्तित्व को उजागर कर रहा है। ऐसी कृतियों के नामोल्लेख के साथ दार्शनिक कृतियों का विशद वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्याय में अध्यात्मवाद का महत्त्व बताया गया है। इसके अन्तर्गत अध्यात्मवाद का व्युत्पत्तिपरक अर्थ, उपाध्यायजी द्वारा गृहित अध्यात्म का सामान्य अर्थ, नैगम आदि सप्तनयों की अपेक्षा से अध्यात्म का स्वरूप, निश्चय एवं व्यवहारनय की दृष्टि से अध्यात्म, अध्यात्म के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए उनके अधिकारी कौन हो सकते हैं, उनका वर्णन मिलता है। अध्यात्म के विभिन्न स्तर बताये III Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org