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________________ जलाने का कार्य किया था। जैन शासन रूपी मोहलात का अमुक भद्रिक वर्ग उस आग का भोग बन चुका था। ऐसे विकट समय में उस आग के संताप की परवाह किये बिना, उन व्यक्तियों के साथ व्यक्तिद्वेष रखे बिना, वाद-विवदों के द्वारा उन स्थानों पर जाकर शास्त्रीय पुरावा युक्त मधुरी देशना एवं उस-उस विषय का सचोट प्रतिपादन करने वाले संस्कृत-प्राकृत-गुजराती-हिन्दी भाषा में संख्याबंध शास्त्रग्रंथों की रचना द्वारा शीतल जल का छंटकाव करके उपाध्यायजी ने उस आग को बुझाने का भगीरथ प्रयास किया था और उस पुरुषार्थ में उन्होंने सफलता भी प्राप्त की थी। ऐसे समन्वयवाद के शंख को बजाते हुए साहित्य जगत् में समवरित उपाध्यायजी ने सभी दार्शनिकों को समन्वयवाद का शिक्षा-बोध, उपदेश देकर वैर-वैमनस्य से विरक्त बनाया। साहित्य क्षेत्र में उनकी कृतियाँ संस्कृत-प्राकृत, गुजराती और हिन्दी-मारवाड़ी में गद्यबद्ध, पद्यबद्ध और गद्यपद्यबद्ध है। शैली की दृष्टि से उनकी कृतियाँ खण्डात्मक भी हैं, प्रतिपादनात्मक भी हैं और समन्वयात्मक भी। उनकी अपूर्व साहित्य सेवा से पता चलता है कि वे व्याकरण, काव्य, कोष, अलंकार, छंद, तर्क, आगम, नय, निक्षेप, प्रमाण, सप्तभंगी आदि अनेक विषयों के सूक्ष्मज्ञान के धारक थे। उनकी तर्कशक्ति एवं समाधान करने की शक्ति अपूर्व थी। उपाध्यायजी की विशिष्टता यह भी है कि तर्काधिपति होते हुए भी उन्होंने तर्क एवं सिद्धान्त को संतुलित रखा है। सामान्य से उन्होंने अपने ग्रंथों में खुद के कथन की पुष्टि हेतु प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रंथों का हवाला देने में कसर नहीं रखी है। न केवल सम्यग्ज्ञान के महासागर थे, या परम-त्याग की जीवन्त मूर्ति या तपश्चर्या मार्ग के .. मुसाफिर मगर सहृदयता, सौजन्यता, सरलता, समर्पितता, साहसिकता, सहनशीलता, सौम्यता, सहायकता, सहानुभूति, सहअस्तित्व, सत्यपक्षपातित्व, स्याद्वादित्व, सहजिक स्वस्थता, सुर, संगीत, सौन्दर्य के सुविशाल स्तोत्र वाली, सदा आनन्द स्वच्छ स्तुत्य, सदागतिशील सुन्दर सरिता भी सचमुच आप ही थे, जिसने अनेक भव्यात्माओं की तत्त्वजिज्ञासा की प्यास बुझाई, शंका-विपर्यादि पंक को दूर किया, आलस्य आदि थकावट को हटा दिया एवं दार्शनिक तत्त्वों का अध्याय आदि द्वारा प्रकाशन किया। शासन की तात्विक उच्चतम सेवा-संरक्षा-साधुबन्ध समुच्चति के लिए आपके कितने मनोरथ थे। सुजसेवली भाषा ढाल 4, कड़ी 7 में गुरुभक्ति स्वरूप गाथा में उपाध्यायजी के तीन विशेषण देखने को मिलते हैं-संवेग शिर-शिखर, ज्ञानरत्नसागर एवं परमतिमिर दिनकर। ऐसी अनेक उपमाओं से अलंकृत गुणों से सुसज्जित, समन्वयवाद के पुरोधा, तार्किक शिरोमणि उपाध्यायजी की कृतियाँ ज्ञानसार, अध्यात्मसार, द्वात्रिंशद-द्वात्रिंशिका, आठ दृष्टि की सज्झाय, 350 गाथा का सीमंधर स्वामी को विनतीरूप स्तवन, सम्यक्त्व के 67 बोल की सज्झाय आदि का संयमजीवन में अध्ययन कर रही थी। उस समय मेरी मानस मेधा में अपूर्व जिज्ञासा जागृत हुई कि उन प्रोन्नत प्रज्ञावान पुरुष द्वारा रचित साहित्य की गहराई तक जाकर आकण्ठ निमग्न होकर श्रुतसाधना की उपासिका/ साधिका बनूं। यद्यपि जैनशासन के गगनांतल में अनेक आचार्योंने समवतरित होकर श्रुतसाधना को साकार किया है, फिर भी मैंने अनेक विद्वान् पण्डितों के मुखारविन्द से यह श्रवण किया है कि न्यायाचार्य महोपाध्याय यशोविजय के सम्पूर्ण वाङ्मय श्रुतसागर को अवगाहित कर एक बार जीवन में आत्मग्राही बनने योग्य है एवं परमपूज्य राष्ट्रसंत आचार्य देवेश, श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वर एवं मुनि भगवंतों से वार्तालाप करते हुए, साथ ही विद्वानजनों के मुखकमल से महोपाध्याय यशोविजय के ग्रंथों की महानता के उद्गार को सुनते हुए एवं पत्रिकाओं, लेखों, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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