________________ स्वकथ्यम् भारतवर्ष पुरातन काल से अद्वितीय संस्कृति का क्रीडांगण रहा है। सभी संस्कृतियों में निवृत्तिमार्ग की उपासिका, श्रमणसंस्कृति का स्थान अग्रगण्य रहा है। प्राचीन काल में इसी संस्कृति के अग्रगण्य अनेक जैन मुनिवरों ने साहित्य सेवा में तल्लीन होकर अपनी आत्मा के साथ समस्त जैन संघ एवं भारतवर्ष को कृतार्थ किया है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ग्यारह गणधरों ने प्रभु की अमृतवाणी को अपनी प्रतिभा के द्वारा गूंथ कर बारह अंगसूत्रों का निर्माण किया। उनके समकालीन श्रमणों ने एवं उनके पश्चात्वर्ती श्रमणों ने द्वादशांगी के आधार पर जो ग्रन्थ साहित्य का सृजन किया था, वह 'सम्पूर्ण रूप से आज प्राप्त नहीं है। जैन वाङ्मय की गीर्वाण गीरा में गूंथने वालों में उपाध्याय यशोविजय का अग्रिम स्थान है, जिनका साहित्य आज भी प्रमाणभूत माना जाता है। उपाध्यायजी की विमलयश रश्मियाँ विद्वत् मानस को चिरकाल से आलोकित कर रही हैं। उनके उर्वर एवं ज्योतिर्मय मस्तिष्क ने जो विचार क्रान्ति एवं ज्ञान समुद्र पैदा किया था, उससे आज कौन अपरिचित है। ऐसे यशस्वी व्यक्तित्व के धनी उपाध्याय यशोविजय के दार्शनिक चिन्तन का वैशिष्ट्य को अपना शोध-विषय बनाकर इस कार्य को किया है। उपाध्यायजी वैसे गृहस्थ जीवन में भी विद्वान थे, किन्तु तब वे वीतरागी वाणी के प्रति सम्पूर्ण श्रद्धासम्पन्न नहीं थे एवं सम्यग्चरित्र से विरहित थे। जब उनको उत्कृष्ट संयमपालक गुरु नयविजय का योग मिला, सत्संग हुआ तब उनके जीवन में भारी परिवर्तन आया। ज्ञान, दर्शन एवं चरित्र की त्रिवेणी से युक्त गुरु नयविजय ने जैन शासन एवं गुरु को पूर्ण समर्पित शिष्य यशोविजय के जीवन को अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश में लाए। अश्रद्धारूपी कंटकाकीर्ण जीवन को श्रद्धारूपी सुमन से सुरभित, सुवासित एवं प्रकाशित कर दिया। सुप्रवृत्तिमय भावों से ओतप्रोत बने हुए यशोविजय ज्ञानार्जन में लग गये एवं काशी में जाकर प्रकाण्ड विद्वान बन गये। अनेक उपमाओं के धारक, सरस्वती पुत्र, नव्यन्याय शैली को विशिष्ट रूप से विश्लेषित कर यशोविजय ने उपाध्याय पद को प्राप्त किया। जैन आगमों के अध्ययन में विशेष विज्ञाता बने। जैन शासन, सद्गुरु एवं परमात्मा की जिनवाणी के प्रति अपना जीवन पूर्ण समर्पित किया, तब उनकी अन्तरात्मा से आनन्द की तरंगें उछलने लगी, आँखों से हर्ष के आंसू बहने लगे, तब उन्होंने सोचा, चिंतन, मनन, विचार किया कि.... अहो! अगर मझे ऐसे सदगरु का योग न मिला होता. परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं जिनागमों के प्रति पूर्ण आस्था न हुई होती तो आज मेरी क्या दशा होती? आगमों, न्याय, योग, दार्शनिक सप्तभंगी, नय, अनेकान्तवाद आदि के अभ्यास के साथ-साथ एक भी पक्ष, एक भी विषय एवं एक भी भाषा उनसे दूर नहीं रही है। अत्यं-प्रकारेण अर्थात् अपने जीवन को उन्होंने ज्ञानमग्न एवं ज्ञानासक्त बना दिया था। जिस समय दार्शनिकों का परस्पर मत मतान्तर रूपी ताण्डवनृत्य मचा हुआ था, सभी अपने-अपने पक्ष को स्थापित करते हुए एक-दूसरे का खंडन-मंडन कर रहे थे, जैन शासन रूपी पेढी पर आंच आने का समय आ गया था, एक तरफ इतर सम्प्रदायों में धर्म के नाम से भोगविलासों का साम्राज्य बढ रहा था। जब जैन दर्शन में अपने आलिशान महल में किसी ने अध्यात्मवाद के नाम से, किसी ने स्वरूप हिंसा के नाम से, किसी ने निश्चय नयवाद के नाम से, किसी ने ज्ञानवाद के नाम से आग I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org